19 जुलाई 2011

"माँ का दर्द...


















क्या लिखूँ?
समझ नहीं आता
कलम है जो रूक-रूक जाती है...
और आँसू
जो थमने का नाम ही नहीं लेते...
एक हूक सी
मन में उठती है...
और आँसुओं का सैलाब फैलाकर
सिमट जाती है
अपने दायरे में...
नश्तर चुभोती है
और दर्द को दुगना कर
छिपकर एक कोने में बैठ जाती है
अगली बार उठने के लिए...
क्या दर्द की ये लहर
नहीं झिंझोड़ देती
हर माँ का अस्तित्व?
जिनकी नन्हीं जान
दूर हो जाती है उनके कलेजे से...
क्या अनचाहा दर्द
बन नहीं जाता माँ की तकदीर?
क्या जीना मुहाल नहीं हो जाता?
और क्या उसका सपना
आँखों को धुँधला नहीं कर जाता?
कैसे रहती है वो जिंदा
बस वही जानती है...
लोगों का क्या
वो तो सांत्वना देकर
चले जाते हैं अपनी राह...
पर माँ अकेली एकदम तन्हाँ
किसी उम्मीद के सहारे
बिना किसी से कुछ कहे
जी जाती है अपना पूरा जीवन...


Bhawna

1 जुलाई 2011

एक फूल की आत्मकथा...











एक फूल

जो हमेशा बनाए रखता था
एक घेरा अपने चारों ओर
उदासी का घेरा...
फिर न जाने कहाँ से एक माली आया
और करने लगा देखभाल...
फूल सकुचाता रहा
मगर माली के प्यार
उसके दुलार
उसके अपनेपन के आगे
फूल ने भी कर दिया आत्मसमर्पण ...
तोड़ डाला वो उदासी का घेरा
लगा मुस्कराने, खिलखिलाने
जीवन जीने की ललक,
साँसे लेने का साहस,
न जाने उसमें कैसे आ गया !
अब चारों तरफ
प्यार,दुलार,अपनापन पाकर
जी उठा फिर से...
पर ये क्या!
अचानक क्या हुआ इस माली को...
एक ही झटके में
ऊखाड़ डाला जड़ से...
पर मासूम फूल उदास नहीं हुआ
मुस्कराता रहा...
बस यही सोचकर
कि कुछ समय के लिए ही सही
उसने भी पाया था अपनापन,प्यार,दुलार...
पर नहीं समझ पाया
इतने बड़े बदलाव का कारण
क्या ये माली की अपनी सोच थी
या फिर वो भटक गया था
किसी की बातों से...
जो सोच भी नहीं सका
साथ बिताए वो खूबसूरत पल
क्या कभी याद नहीं आयेगा
उस फूल का मासूम चेहरा?
और क्या अब कोई फूल
किसी माली को देखकर
तोड़ पायेगा अपनी उदासी का घेरा
पैदा कर पायेगा अपने अन्दर
जीने की चाह
शायद नहीं
क्योंकि उदासी के बाद
मिलने वाला प्यार
कभी कोई कहाँ भूल पाता है
हाँ मर जरूर जाता है जीते जी
और छोड़ देता है साँसे
मंद-मंद मुस्कराते हुए
अपने माली के लिए...


Bhawna