29 अक्तूबर 2006

नन्हें पाँव

१४ नवम्बर पर आने वाले बाल दिवस पर मेरी एक रचना



हाथ पकडकर अनुज को अपने जो चलना सिखलाते हैं
वही आदमी जग में सच्चे दिग्दर्शक कहलातें हैं।

ठोकर लगने पर भी कोई हाथ बढाता नहीं यहाँ
सोचा था नन्हें बच्चों के पाँव सभी सहलाते हैं।

नन्हें बोल फूटते मुख से तो अमृत से लगते हैं
मगर तोतली बोली का भी लोग मखौल उडाते हैं।

खुद तो लेकर भाव और के बात सदा ही कहते हैं
ऐसा करने से वो खुद को भावहीन दर्शाते हैं।

हैं कुछ ऐसे उम्र से ज्यादा भी अनुभव पा जाते हैं
और हैं कुछ जो उम्र तो पाते अनुभव न ला पाते हैं।
डॉ० भावना कुअँर

26 अक्तूबर 2006

दीपावली हाइकु

मेरी और मेरे परिवार की ओर से आप सबको दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें:


करो रोशन

बुझते चिरागों को

इस पर्व में।


जगमग है

दियों की कतार से

सारा आलम।


हँसी रोशनी

जीत पर अपनी

अँधेरा रोया।


रंगोली सजे

दीपों की रोशनी से

अँधेरा मिटे।


झूम रहे हैं

रंगीन कंदीलों से

घर आँगन।


सुख समृद्धि

लाये ये दीपावली

जन - जन में।


डॉ० भावना

25 अक्तूबर 2006

हिन्दी का परचम लहरायें


सब मिलकर आज, कसम ये खायें
हिन्दी को उच्च स्थान दिलायें ।

लगे प्रचार में हम सब मिलकर
ऐसा ही इक प्रण निभायें ।

पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण
हिन्दी का परचम लहरायें।

इस भाषा के चाहने वालों
यादगार ये दिवस बनायें।

दुनिया भर के हिन्दी भाषी
इसको नत मस्तक हो जायें।
डॉ० भावना कुँअर

बस तुम यादें छोड गयीं



मैं और तुम खेला करते

गलियों में,चौबारों में

आँगन में चौपालों में।

मैं और तुम झूला करते

सावन के आने पर

पेडों की डालों पर।

मैं और तुम ब्याह रचाते थे

गुड्डे और गुडियों का

सब कुछ होता कहानी की परियों सा।

मैं और तुम रूठा करते

पर खुद ही मन जाते

फिर इक दूजे से दूर ना जाते।

आज अचानक हुआ है क्या?

जो तुम मुझसे रूठ गयी

गलियाँ,चौबारे,आँगन,चौपालें

सब कुछ यूँ ही छोड गयीं।

सूने हो गये झूले सब,

पेडों की डाली सिसक रही

बाट जोह रहे गुड्डे गुडिया

क्यूँ तुम मुँह अब मोड गयी?

मात - पिता जब छूटे थे-

तब तुमने मुझे संभाला था

आज तुम मुझसे छूट गयी

अब मुझको कौन संभालेगा?

सूनी हो गयी मेरी कलाई

अब रखिया कौन बांधेगा?

कौन कहेगा मुझको भैय्या?

अब कौन मुझे दुलारेगा?

कैसे हो गयी निष्ठुर तुम?

साथ जो मेरा छोड गयी

यहाँ वहाँ मैं ढूँढू तुमको

बस तुम यादें छोड गयीं

बस तुम यादें छोड गयीं।
डॉ० भावना कुँअर

मेरी अम्मा के गाँव में



मुझे आज फिर मेरी अम्मा याद आईं हैं।

छूकर हवा जब मुझको है लौटी

याद आई है मुझे अम्मा की रोटी।

नहीं भूल पायी हूँ आज भी-

उस रोटी की सौंधी-सौधीं खुशबू को

मिल बैठकर खाने के-

उस प्यारे से अपनेपन को

साँझ ढलते ही-

नीम के पेड की छांव में-

अपनी अम्मा के-

सुहाने से उस गाँव में-

चौकडी लगाकर सबका ही बैठ जाना

फिर दादा संग किस्से कहानियाँ सुनना, सुनाना।

नहीं भूली मैं खेत - खलिहानों को

उन कच्चे - पक्के आमों को।

जब अम्मा याद आती है-

तब आँखें भर-भर जाती हैं।

खोजती हूँ उनको-

खेतों में खलिहानों में

उस नीम की छाँव में

उन कहानियों में, उन गानों में

पर अम्मा नहीं दिखती

बस दिखती परछाई है।

न जाने ऊपर वाले ने

ये कैसी रीत चलाई है

हर बार ही किसी अपने से

देता हमें जुदाई है

और इस दिल के घरौंदें में

बस यादें ही बसाई हैं

मुझे आज फिर मेरी अम्मा याद आईं हैं

मुझे आज फिर मेरी अम्मा याद आईं हैं।

डॉ० भावना कुँअर