28 मई 2007

ऊँचे सपने


एक चिड़िया
हमेशा मेरे कमरे में आया करती
दीवारों पर उछल-कूद करती
और फिर एक ऊँची
और लम्बी उड़ान भरती
फिर लुप्त हो जाती।
उसकी इस क्रीड़ा को
मैं समझ नहीं पाती।
वह रोज़ आती
और इसी प्रक्रिया को दोहराती।
आज़ भी हमेशा की तरह
देखा मैंने उसको
आते हुए
उसी स्वच्छन्दता से
उछलते-कूदते हुए
और फिर
फिर उसने उड़ान भरी,
आज़ भी
उसकी उड़ान में
हमेशा की तरह
कोई ठहराव न था
चाह थी
कुछ और ऊँचाई पाने की
अभी कुछ दूर ही
उड़ पायी थी वो
खुली खिड़की की ओर,
कि अचानक देखा मैंने
उसकी उड़ान में
यह ठहराव कैसा?
हाँ एक न मिटने वाला ठहराव
क्योंकि
अपनी उड़ान की तीव्रता में
नहीं देख पायी वो
खिड़की पर लगे शीशे को,
नहीं देख पायी
अपनी छवि उस चमक में,
लुप्त हो गयी उसकी उड़ान
दूर कहीं अंतरिक्ष में
हमेशा के लिये।

23 मई 2007

रूह से मुलाकात



मेरी मुलाकात
एक रूह से हुई
एक पवित्र और सच्ची रूह से
मैंने देखा उसको तड़फते हुये
और भटकते हुये ।
मैंने महसूस किया
उसकी धड़कन को,
मैंने पूछा-
“क्या मैं ही तुम्हें देख सकता हूँ?”
उसने कहा- “हाँ सिर्फ तुम ही-
मुझे सुन सकते हो,
देख सकते हो
और महसूस कर सकते हो”
मैंने पूछा-
“लेकिन तुमने शरीर क्यों छोड़ा?
वो तड़फ उठी,
उसकी आँखों से नफ़रत बरसने लगी,
मैं सहम गया !
वो मेरे करीब आकर बैठ गयी
और बोली-
“मुझे नफ़रत है उस दुनिया से
जिसमें जीवन शरीर से चलता है
उस दुनिया में बस छल है
कपट है, फरेब है।
मैंने भी फ़रेब खाया है
उस दुनिया से
तो छोड़ दिया शरीर
उसी संसार में
और ये देखो-
ये है रूहों का संसार
ये बहुत अच्छा है तुम्हारी दुनिया से।”
मैं अपलक उसको देखता रहा
बरबस मेरी आँखे छलक पड़ीं
क्योंकि-
मैंने भी खाया था धोखा
उसी दुनिया से।
हम दोनों की एक ही कहानी थी,
तभी शायद मैं उसको
सुन सकता था, और महसूस कर सकता था।
मैं गहरे सोच में डूब गया
रूह मेरे अन्तर्मन को पढ़ चुकी थी
क्योंकि वो रूह थी
एक सच्ची और पवित्र रूह
उसने आगे बढ़कर
मेरी ओर हाथ बढ़ाया
मैं भी इन्कार न कर सका
अपना हाथ उसके हाथ में दे दिया
और अचानक
मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गयी
और मैं
पहाड़ी से नीचे गिरा
मैंने देखा था अपना शरीर
गहरी खाई में,
निर्ज़ीव शरीर
और मैं उस रूह के साथ
उड़ता चला गया
एक खूबसूरत दुनिया में
जहाँ छल, कपट
और फरेब नहीं होता।

9 मई 2007

लीजिये आप लोगों की फरमाईश पर प्रगीत कुँअर जी द्वारा लिखी एक कहानी "जोशी जी"

जोशी जी


शायद कम ही लोग ऐसे होते होंगे जो जोशी जी जैसा सामर्थ्य रखते हैं। जोशी जी आज़ भी ऑफिस में चर्चा का विषय बने रहते हैं। कभी-२ हँसी की चुटकियों के बीच उन्हें याद किया जाता तो कभी मुश्किल क्षणों में भी जब सारा ऑफिस रात-रात तक काम करता नज़र आता। जोशी जी थे ही ऐसी हस्ती, नहीं-नहीं हैं ही ऐसी हस्ती जो जहाँ भी जायें अपनी यादों की छाप सदा के लिये छोड़ जायें। आप भी सोच रहे होंगे कि कब से मैं जोशी जी-जोशी जी कहे जा रहा हूँ, आखिर कौन हैं ये जोशी जी? ऐसी क्या बात है उनकी शख्सियत में?
अच्छा ठीक है मैं अब आपको उस लीक पर लेकर आता हूँ जहाँ से आपको उनसे परिचय कराया जा सके। मगर उसके लिये आपको मेरे साथ वर्तमान से कुछ पीछे चलना होगा। जब एक कम्पनी में एक नवयुवक के रूप में मैंने अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद Accounts Officer के रूप में ज्वाईन किया था। बहुत ही अविस्मरणीय था वह पहला ऑफिस का दिन जब मैं एक अनुभवहीन बालक के समान हाथ मे नया ब्रीफकेस लेकर ऑफिस में प्रवेश कर रहा था। ऑफिस में प्रवेश होते ही सबसे पहले अधेड़ उम्र की रिशेपस्निस्ट से सामना होते ही 'गुड मॉर्निग मैड़म' से अपनी ज़ुबान को खोला। बदले में रिशेपस्निस्ट ने भी मुस्करा कर “सर वेलकम टू अवर ग्रुप” से उत्तर दिया। इण्टरव्यू के तीन चार चरणों के कारण वह पहले से ही मुझसे परिचित हो चुकी थी। मैंने औपचारिकतावश उनसे अपने डिमार्टमेंट का रास्ता पूछा और उन्होंने सिक्योरिटी गार्ड को मेरे साथ जाने का इशारा किया। गार्ड मुझे लिफ्ट के रास्ते पाँचवीं मंजिल पर ले गया और लिफ्ट का दरवाज़ा खुलते ही मुझे बताया कि यही आपका डिपार्टमेंट है और वापिस लौट गया। सामने ही जी० एम० : मिस्टर जोशी जी के नाम का बोर्ड लगा था मैंने सीधे ऊपर जाकर दरवाज़ा नॉक किया और 'मे आइ कम इन सर' ? कहकर धीरे से दरवाज़ा खोला तो सामने जोशी जी कम्प्यूटर पर किसी कार्य में व्यस्त नज़र आये और उन्होंने 'कम इन' कहकर अन्दर आने का सकेंत दिया और मुझे उनके सामने रखी विशालकाय मेज़ के सामने रखी कुर्सी पर बैठने को कहा।
जोशी जी का अनुभव उनके चेहरे से झलक रहा था। उनकी आयु तकरीबन साठ के आसपास थी। मेरे बैठते ही उन्होंने अपने काम को रोककर मेरी ओर मुख़ातिब होकर मुझसे एक संक्षिप्त परिचय पूछा और कहा कि-“हाँ सेठ जी (हमारे एम० डी०) ने मुझे तुम्हारे बारे में बताया था कि उन्होंने तुम्हें यहाँ के लिये स्लैक्ट किया है। बहुत खुशी हुई तुम्हारे जैसे नौज़वान को यहाँ पाकर। क्योंकि अभी जब तुम अपने डिपार्टमेंट के लोगों से मिलोगे तो तुम वहाँ अपने को सबसे छोटा पाओगे। यहाँ सभी अपने १५ से २० वर्ष इस ऑफिस में व्यतीत कर चुके हैं। मगर तुम बिल्कुल चिन्ता मत करना मैं एक-२ करके तुम्हारा परिचय सबसे करा दूँगा और आशा है तुमसे उनको और उनसे तुमको बराबर का कॉपरेशन मिलेगा।“ मुझे उनके शब्दों से मन के कोने में बैठे एक डर से तुरन्त ही छुटकारा मिल गया।
अब शुरु हुआ एक-एक करके सभी स्टाफ मेम्बर से परिचय का सिलसिला। ये गुप्ताजी.. ये खान साहब… ये दीक्षित साहब…ये थामस…ये कुलतार सिंह आदि-२। पहले दिन मुझे उन सबके चेहरे और नाम आदि को अपने स्मरण में रखना बहुत मुश्किल था मगर मैं मुस्कराहट से उनके अभिवादन को स्वीकार करता गया। इसी मुलाकात के सिलसिले में पता नहीं कब पूरा दिन निकल गया। इसी तरह धीरे-धीरे मैं गुप्ता जी, शर्मा जी आदि के नाम और चेहरे से परिचित होना शुरु हो गया। अब तो मेरी जुबान पर भी गुप्ता जी आज़ की बैंक पोज़ीशन क्या है? शर्मा जी आपकी रिपोर्ट अभी नहीं मिली, जल्दी कीजिये मुझे वो रिपोर्ट जोशी जी को देनी है। सेठ जी कभी भी माँग सकते हैं उस रिपोर्ट को जोशी जी से…आदि बातें अभ्यस्त हो चुकी थीं।
कभी ऑडिट कभी ईयर एंड रिपोर्ट आदि की व्यस्तताऐं रहतीं तो जोशी जी मेरे केबिन में आकर पीठ थपथपाते रहते और कहते- “बेटा तुम्हारे आने के बाद मुझे बहुत आराम हो गया है। पहले मैं रात में रोज़ देर तक इन कामों को निपटाने में ही लगा रहता था।“ मैं भी उन्हें उत्तर में कहता- “सर आप ही मेरे गुरु हैं जो आपने मुझे इन सब अनुभवों से अवगत कराया और मुझे इस योग्य समझा कि मैं इन कामों को आपके अनुरूप कर सकूँ।“ वह कहते कि- “मैंने अपने ३० साल के कार्यकल में पूरे स्टाफ को अपने परिवार की तरह ही समझा है और ईश्वर ने मेरा हमेशा साथ दिया है कि मुझे भी बदले में अच्छे लोग ही मिले हैं।“
मुझे ऑफिस के बाकी लोगों से जोशी जी द्वारा उन्हें समय-२ पर की गयी मदद संबंधी बातें पता चलती रहीं और मेरे मन में भी जोशी जी के प्रति एक अलग सी आदर भावना रहने लगी। मेरी छोटी मोटी गलतियों को भी जोशी जी ने हमेशा नज़र अंदाज़ किया था और मुझे बुलाकर प्यार से समझा दिया करते थे। उन्होंने मुझे ऑफिस के काम की सभी बारीकियों से जल्दी ही अवगत करा दिया था। सही मायने में हम उन्हें 'मैन ऑफ प्रिंसिपल' कह सकते थे। जोशी जी का परिवार भी उन्हीं के समान बहुत सौम्य और मृदुभाषी था। अक्सर ऑफिस पार्टियों में उनके परिवार से मिलने का मौका मिलता रहता या उनकी अनुपस्थिति में उनके फोन बज़ने पर, उठाने पर परिज़नों से परिचय का मौका मिलता रहता था।
जोशी जी अपने स्वभाव के कारण न सिर्फ अपने ऑफिस में ही बल्कि बैंक एवं उन सभी लोगों में लोकप्रिय थे जिनसे रोज़मर्रा में हमारे ऑफिस का संपर्क रहता था। स्टाफ में जो गुप्ताजी थे वो १५ वर्ष का अनुभव लिये हुये थे मगर पूरी तरह जोशी जी के आदेशों का निर्वाह करने को ही अपने कार्य का हिस्सा मानते थे। जोशी जी हमेशा गुप्ता जी को प्यार से समझाते थे कि- “गुप्ताजी क्यों हमेशा मेरे इशारों पर ही काम को आगे बढ़ाते हो, कभी खुद अपनी बुद्धि से भी डिसीज़न लेने की सामर्थ्य लाओ। मैं हमेशा ही नहीं रहने वाला तुम्हें रास्ता दिखाने के लिये। अब खुद भी कुछ करना सीखो” बदले में गुप्ताजी हमेशा हँसकर एक ही जवाब में जोशी जी को चुप कर देते कि- “हम तो आपके हनुमान हैं आप जहाँ जायेंगे हम भी वहाँ चले चलेंगे”। जोशी जी भी सिर हिलाकर मुस्कराकर बस इतना ही कह पाते कि- “गुप्ता तेरा मैं क्या करूँ”।
सेठ जी को भी हमारे डिपार्टमेंट में जोशी जी के होते हुये कभी किसी जानकारी के लिये किसी भी डिपार्टमेंट के अन्य व्यक्ति से सीधे संपर्क करने की जरूरत ही नहीं हो पाती थी। जोशी जी को भी मैंने कभी छुट्टी आदि लेते हुए ही नहीं देखा था।बल्कि जोशी जी तो रविवार में भी ऑफिस आने के अवसर से नहीं चूकते थे। वह कहते कि- “बेटा अब मैं ऑफिस के काम में इतना रम गया हूँ कि कोई काम अधूरा होने पर मैं छुट्टी के दिन भी घर में नहीं बैठ पाता”। माना कि मिसेज़ जोशी जी को उनकी इस बात से हमेशा शिकायत ही रहती थी मगर वह भी जोशी जी के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थीं कि वह ऐसे में किसी की भी नहीं सुनने वाले और वह उनकी इस क्वालिटी की कद्र भी करती थीं।
मुझे अच्छी तरह याद है वह सोमवार का दिन था। हफ्ते का पहला दिन होने के कारण सोमवार हमेशा ही बहुत बिज़ी डे हुआ करता था। हमेशा की तरह हम सब ठीक ८ बज़े ऑफिस के रिस्पेशन पर थे। जोशी जी हमसे १०-१५ मिनट पहले ही आया करते थे। ऊपर जाकर जोशी जी को मॉर्निग बोलने गया तो जोशी जी कुछ चिन्तित से लग रहे थे। बोले- “बेटा मेरे बड़े भाई के बेटे का आज़ सुबह ही बहुत सीरीयस एक्सीडेंट हो गया है और आज़ ही दूसरी कंपनी से मेरी बहुत जरूरी मीटिंग है। मैं समझ नहीं पा रहा कि मैं क्या करुँ, मुझे हॉस्पिटल भी जाना है और मीटिंग भी जरूरी है”। मैंने तुरंत उनसे कहा कि- "सर आप चिन्ता न करें में मीटिंग में चला जाऊँगा। वैसे भी मीटिंग की फाईल मैंने ही तैयार की है इसीलिये मुझे आईडिया तो है ही बाकि आप मुझे ब्रीफ कर दें”। जोशी जी के चेहरे पर आयी चिन्ता की लकीरें इस बात से कुछ कम होती दिखाई दी। बोले- “ठीक है फिर ऐसा करते हैं कि अभी ही निकलते हैं। तुम मेरे साथ चलो मुझे हॉस्पिटल छोड़ने के बाद मेरा ड्राइवर तुम्हें मीटिंग प्लेस पर छोड़ देगा और रास्ते में मैं तुम्हें मीटिंग के बारे में भी गाईड कर दूँगा”। उन्होंने पूरे स्टाफ के लोगों को बुलाकर ये जानकारी दी और सबको उनका काम समझा कर चलने को कहा। मैं और जोशी जी तो ऑफिस से निकल गये बाद में सेठ जी के पी० ए० की कॉल जोशी जी के लिये आयी तो स्टाफ मेम्बर्स ने बताया कि जोशी जी अभी हॉस्पिटल गये हैं और २ घण्टे बाद लौटेगें। सेठ जी को भी शायद कुछ ज्यादा ही अर्जेंट काम था, उनके पी० ए० की कॉल फिर आई और पूछा कि- “बैंक के काम कौन डील करता है”। गुप्ता जी का नाम लेने पर उन्होंने तुरंत गुप्ता जी को ऊपर मिलने के लिये बुलाया। गुप्ता जी बहुत सहमे हुये से सेठ जी से मिलने के लिये लिफ्ट से टॉप फ्लोर के लिये अपनी बगल में अपनी फाईल दबाये हुए निकले। सेठ जी ने कम शब्दों में गुप्ता जी से कहा कि- “फलां व्यक्ति के नाम १० लाख का चैक अभी बनाकर उसे आज़ ही उनके एकाउंट में ट्रांसफर कराना है”। गुप्ता जी सीधे नीचे आकर अपनी सीट पर बैठ गये और अस्त व्यस्त कागज़ों को सभाँलते हुये जोशी जी के लौटने का इन्तज़ार करने लगे। माना की उन्होंने उससे संबंधी सभी कागज़ भी जोशी जी को दिखाने के लिये ढूँढ निकाले थे। १० मिनट बाद फिर सेठ जी के पी० ए० की कॉल गुप्ताजी के लिये आयी। गुप्ता जी घबराये हुये से फिर लिफ्ट की ओर दौड़े और सेठ जी के सामने पहुँच गये। सेठ जी ने गुस्से से कहा कि- "चैक कहाँ है?" घबराहट में गुप्ता जी ने ब्लैंक चैक बुक सेठ जी की ओर बढ़ायी। अब ब्लैंक चैक देखकर सेठ जी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और अंग्रेज़ी में गुप्ता जी को डाँटते हुये अपने पी० ए० को बुलाया और कहा कि- "इस आदमी का अभी हिसाब करो और कल से मैं इसका चेहरा ऑफिस में न देखूँ।" गुप्ता जी के तो जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गयी। सॉरी सर के अलावा उनके मुँह से कुछ भी नहीं निकल सका और वो वापस अपनी सीट पर लौटकर फफक-फफक कर रोने लगे। तभी जोशी जी हॉस्पिटल से वापस लौट आये और लोगों ने उन्हें स्थिति से अवगत कराया। जोशी जी ने किसी की भी न सुनते हुये सीधे सेठ जी के केबिन की ओर दौड़ लगायी, उन्होंने अपने भतीज़े की चिन्ता को भी भुला दिया और सेठ जी के केबिन को नॉक किया। सेठ जी उन्हें देख तुरंत अन्दर बुलाया। जोशी जी ने सेठ जी से गुप्ता जी द्वारा किये गये कृत्य पर माफी माँगी और उनको जॉब से न निकालने का आग्रह किया। मगर सेठ जी तो बस किसी की बात सुनने के मूड में ही नहीं थे। उन्होंने कहा- "जोशी गुप्ता की पैरवी करने की जरूरत नहीं है मैं जो डिसीज़न ले चुका सो ले चुका। अब वो नहीं बदल सकता। जोशी जी ने सेठ जी से पूछा कि- "यदि गुप्ता जी की गलती न हो तो?"
सेठ जी बोले कि- "फिर जिसकी गलती है उसे जॉब से जाना होगा”। जोशी जी ने तुरंत ही मेज़ पर पड़े एक कागज़ पर कुछ लिखा और सेठ जी को दे दिया। सेठ जी पेपर को पढ़कर स्तब्ध रह गये। बोले- "जोशी जी ये क्या मज़ाक है?" जोशी जी बोले -"यही सही है गुप्ता ने मुझसे मोबाईल पर इस चैक के बारे में पूछा था और मैंने ही उसको मेरे आने तक इंतज़ार के लिये कहा था इसलिये मैं ही गुनहगार हूँ और इसीलिये मैं रिज़ाइन दे रहा हूँ।" सेठ जी तो अच्छी तरह सच जानते थे कि जोशी जी जो कह रहे हैं गलत है और गुप्ता जी को बचाने के लिये ही ये ऐसा कर रहे हैं। मगर अपनी ईगो के सामने सेठ जी को जोशी जी का रिज़ाईन मजूंर करना पड़ा। जब यह बात सेठ जी के केबिन से हमारे फ्लोर तक पहुँची तो सारे डिपार्टमेंट में जैसे सन्नाटा छा गया और जोशी जी के लौटने पर सब लोगों ने उनको घेर लिया। इसी बीच मैं भी खुशी-खुशी मीटिंग खत्म करके ऑफिस लौटा तो सब बदला हुआ पाया। जोशी जी स्टाफ के लोगों से घिरे बैठे थे और मुझे भी इशारे से अपने करीब की कुर्सी पर बिठा लिया। गुप्ता जी तो बार-बार रोते हुये कह रहे थे-"सर आपने ऐसा क्यों किया? मुझ जैसे नालायक के लिये आपने अपनी जॉब को दाँव पर लगा दिया।" जोशी जी ने मुस्कराते हुये कहा- "गुप्ता अब तुम काम करना सीख जाओगे। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे बिना रहने की आदत डालो।" गुप्ता जी बोले-"मैं भी यहाँ नहीं रहने वाला। जहाँ आप जायेंगे मैं भी वहीं जाऊँगा।" जोशी जी बोले- "ऐसी गलती मत करना। अपनी दोनों बेटियों की सोचो तुम्हें उन्हें पढाना लिखाना है, उनकी शादी करनी है, मेरा क्या है, एक बेटा है वह भी बहू के साथ यू० एस० में सैटल्ड है।" सबने बड़े ही भारी मन से जोशी जी को अश्रुपूर्ण विदाई दी। तो ऐसे थे हमारे जोशी जी। उनके जाने के बाद मेरा भी मन उस कंपनी में नहीं लगा और दूसरी जॉब मिलते ही मैंने भी उस कंपनी को छोड़ दिया।
आज सुना है जोशी जी भी यू० एस० में अपने बेटे के साथ परिवार सहित रह रहे हैं और गुप्ता जी को अब बिना ऊँगली पकड़े चलना आ चुका है।