28 नवंबर 2013

आज फिर हो गई मैं अकेली...

आज फिर
हो गई मैं अकेली
आज मेरी सहेली
कोयल भी नहीं आई
रोज सुबह जगाती थी मुझे
अपनी मधुर, कोमल आवाज से...
जाने कहाँ गई...
रात बहुत तेज तूफान आया था
कहीं...
नहीं-नहीं मैं ऐसा कैसे सोच सकती हूँ
देखा था कल मैंने
कैसे सँभाले थी अपने बच्चों को...
पर ये क्या
पेड़ की डाली कहाँ गई
जहाँ रहता था उसका
छोटा सा परिवार...
क्या वक्त इतना निर्दयी हो सकता है?
क्या हुआ होगा उसके बच्चों का?
क्या दोष था उसका?
घण्टों हम बातें करते...
वो अपनी सुरीली बोली से
मेरा मन का सारा दर्द समेट लेती
मेरे अकेलेपन को भर देती
और मैं भी घण्टों उसके बच्चों को निहारा करती
उनके क्रिया-कलाप आँखों में भरा करती...
पर क्या हुआ होगा?
क्या वो तूफान के डर से
कहीं दूर चली गई होगी...
या फिर...
नहीं-नहीं मैं ऐसा नहीं सोच सकती
क्या मैं दोषी हूँ?
या कि मेरी छाया ही बुरी है?
क्या मुझे खुशियाँ देने वाला
हर बार ही
कर दिया जाएगा
मुझसे दूर...
क्या छाया भी अच्छी-बुरी होती है?
अगर नहीं
तो क्यों कहा जाता है
उसके कदम पड़े
तो घर फला-फूला...
उसके पड़े तो सब डूब गया...
क्या सच्ची होती हैं ये मान्यताएँ?
अगर नहीं
तो क्यों नहीं तोड़ पाते हम
ऐसी मान्यताओं को...
जो सिवाय दुख-दर्द के
कुछ नहीं देतीं...
बस छोड़ जाती हैं ऐसे घाव
जो कभी नहीं भरते कभी भी नहीं...


Bhawna

8 नवंबर 2013

अभिनव इमरोज में मेरी १३ छोटी-छोटी बाल-रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं जिनको छोटे बच्चे बड़ी आसानी से याद कर सकते हैं अभिनव-इमरोज का धन्यवाद करते हुए आप सब लोगों के साथ शेयर करना चाहूँगी। आप भी सोचते होंगे कि कहाँ गायब रही इतने दिनों से तो बस यही कहूँगी कि-

घेरा है अँधेरों ने कुछ इस तरह से हमको
भूले हैं प्यार अपना भूले हैं हर डगर को।
























Bhawna

23 जुलाई 2013

साभार हिन्दी मीडिया, रचना जी सुधा जी...

डॉ कुँवर बेचैन एक ऐसा नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है। साहित्य की कोई भी विधा ऐसी नहीं है जिसको आपकी लेखनी ने छुआ न हो। लाखों लोगों के प्रिय श्री बेचैन जी पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के तत्वाधान में प्रस्तुत कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका आये थे । उसी दौरान मुझे आदरणीया दीदी सुधा ओम ढींगरा जी के सहयोग से ये साक्षात्कार लेने का अवसर मिला। प्रस्तुत है एक आत्मीय मुलाकात।

आप साहित्य के क्षेत्र में कैसे आये ?
रचना जी जहाँ तक कविता का सवाल है ,जब मै नवीं कक्षा में पढ़ता था, ये सन १९५५ की बात है, तब मैने कविता लिखनी शुरू की थी। उस समय मेरे कक्षा अध्यापक थे, गीतकार श्री महेश्वर दयाल शर्मा जी, उन्होंने सभी से स्कूल की पत्रिका के लिए कवितायेँ मांगी तो मैने अपनी एक कविता उनको दी। उनको वो कविता इतनी पसंद आई की उन्हें विश्वाश ही नहीं हो रहा था की ये कविता मैने लिखी है। उन्होंने मुझे कक्षा से बाहर बुला कर कहा की यदि तुम कविता लिखते हो तो जाओ फील्ड में बैठो और तुलसी दास पर कविता लिख कर लाओ। मै करीब २ घंटे फील्ड में बैठा रहा पर मै कविता नहीं लिख पाया। मै रोता हुआ कक्षा में आया और कहा कि वो कविता तो मेरी ही लिखी हुई है, पर तुलसी दास जी पर कविता मै नहीं लिख पाया हूँ। तो उन्होंने कहा की कोई बात नहीं जाओ फिर से कोशिश करो में पुनः फील्ड में आगया और फिर मैने एक छोटी सी कविता लिखी और मैने उसको ले जा कर महेश्वर दयाल जी को दिया। उस कविता को उन्होंने मुझसे पूरे क्लास के सामने सुना फिर उसी दिन शाम को तुलसी जयंती का कार्यक्रम था तो वही कविता मैने पूरे स्कूल के सामने पढ़ी थी । इसके बाद मै कविता लिखने लगा। मुझे मेरे विद्यालय में छूट थी की जिस विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता होगी मुझे उसी विषय पर कविता लिख कर सुनानी होगी।

पंडित महेश्वर दयाल शर्मा जी के माध्यम से मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला। मैने गीत लिखना प्रारंभ किया स्वर मेरा अच्छा था तो मै गाने लगा। मैं जिला मुरादाबाद के शहर चन्दौसी में मै पढ़ता था यहीं पर श्री सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी रहते थे। जो यहाँ के कवि
सम्मेलनों के संयोजक हुआ करते थे । उन्होंने मेरी कवितायेँ सुनी और वो मुझे सन 1959 से कवि सम्मेलनों में ले जाने लगे वहां पर बड़े बड़े कवियों जैसे नीरज जी, काका हाथरसी जी के साथ मुझे कविता पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो सन १९५९ से मै कवि सम्मेलनों के मंच पर हूँ। तो तक़रीबन ५४ वर्ष हो गए मुझे मंच पर कविता पाठ करते हुए।

आपने जो कविता कक्षा ९ में लिखी थी क्या उसकी कुछ पंक्तियाँ याद है ?
ऐ सुंदर फूलों की सुंदर आशाओं
हो सके तो मुझको ये बतलाओ
तुम में ये मादक गंध कहाँ से आई
कुछ इस प्रकार की पंक्तियाँ थी।
जब आप इन बड़े बड़े कवियों से साथ मंच पर बैठते थे तो कैसी अनुभूति होती थी?
ऐसा था जब मैने पहला कवि सम्मलेन किया जो की चन्दौसी के पास एक इंटर कॉलेज में हुआ था, तो उन बड़े कवियों के बीच में Dr Kunwar Bechain1बैठने में मुझे बड़ी शर्म सी महसूस हुई बहुत संकोच हुआ की मै इन बड़े कवियों के साथ बैठने योग्य नहीं हूँ ऐसा सोचने लगा । कवि सम्मेलनों में नए कवि को सबसे पहले कविता पाठ कराया जाता है अतः मुझे पहले कविता पढ़ने को कहा गया मैने कविता पढ़ी तो श्रोताओ ने मुझे बहुत सराहा और दुबारा पढ़ने के लिए कहा दुबारा पढ़ के मै संकोच के मारे पीछे फील्ड में जा कर बैठ गया। जब कवि सम्मलेन ख़त्म हुआ तो सभी मुझे ढूंढने लगे फिर मुझे उठा कर मंच पर लाये।

आपने कहा की आप जब छोटे थे तभी से कवि सम्मेलनों में जाते थे तो क्या घर से आपको अकेले जाने की अनुमति मिल जाती थी ?
मेरे बचपन की कहानी कुछ अलग तरह की है मेरे पिताजी का देहांत तब हो गया था जब में दो महीने का था मेरी माता जी का देहांत तब हो गया था जब मै ६ वर्ष का था। तो मेरा पालन पोषण मेरे बहन-बहनोई से घर हुआ था। ये चंदौसी में रहते थे इसके बाद जब मै ९ वर्ष था तो मेरी बहन का भी देहांत हो गया। तब घर में हम दो ही व्यक्ति रह गए मै और मेरे बहनोई। मेरे बहनोई किसान थे। बहुत मेहनत करते थे। ९ वर्ष की उम्र से ही मैने घर का काम करना शुरू कर दिया था। मै और मेरे बहनोई हम दोनों ही मिल कर खाना बनाया करते थे। इसी समय पहली बार मैने बाजरे की रोटी चूल्हे पर बनाई थी। मेरे बहनोई ने कभी भी मुझे कवि सम्मेलनों में जाने से नहीं रोका बल्कि जब उनको पता चला की मै कवितायेँ लिखता हूँ और लोगों को बहुत अच्छी लगती है तो उन्होंने बहुत गर्व का अनुभव हुआ।

श्री जंग बहादुर सक्सेना उनका नाम था । यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा कि दुःख और परेशानियों के दिन भी बहुत अनुभव देते हैं । अभाव भावों को जन्म देता है और कविता लिखने के लिए भावों की बहुत जरुरत होती है।

आपने अपना उपनाम "बेचैन " क्यों रखा ? मेरा नाम कुँवर बहादुर सक्सेना है?
Dr Kunwar Bechain2मैने सोचा की कुछ उपनाम भी होना चाहिए क्या नाम रखूं सोच रहा था। कुछ दुखी सा रखना चाहता था इसी समय जब मै हाई स्कूल में था तो कुछ पंक्तियाँ मन में आयीं
'मुझे दिन रात किसी वक्त की राहत न मिली,
मै हूँ बेचैन मुझे चैन की आदत न मिली।
मै तो अपने लिए उस वख्त बहुत कुछ कहता,
मगर चाँद और सितारों की शहादत न मिली।

तो बस इस पंक्ति में जो 'बेचैन' शब्द आया है न उसी को उपनाम बना लिया मुझे लगा की माँ सरस्वती ने स्वयं ये नाम भेजा है।

पहले तो मेरी कवितायेँ कुँवर बहादुर सक्सेना 'बेचैन 'के नाम से छपी फिर कुँवर बहादुर 'बेचैन के नाम से छपीं परन्तु ये सारे नाम बहुत बड़े बड़े से लगे तो फिर मैने इसे छोटा कर दिया और अब कवितायेँ कुँवर बेचैन के नाम से छपने लगी ।

आपकी पहली कविता गीत थी आपने कविता की अन्य विधाओं में लिखना कब प्रारंभ किया ?

मेरा स्वर अच्छा था तो मैने गीत विधा में ही लिखना प्रारंभ किया था। बचपन में अपना दर्द व्यक्त करने के लिये फिल्मी गाने गया करता था। फिर मेरा दर्द मेरे लिखे गीतों में व्यक्त होने लगा और मै उनको गाता रहता था, इस तरह से गीत बन गए । बहुत बाद में चल कर मै ग़ज़ल भी लिखने लगा था।
आपकी दृष्टि में गीत क्या है ?
मेरी दृष्टि में गीत सबसे प्रमाणिक और सबसे ज्यादा व्यक्ति की चेतना को जगाने वाला तथा संवेदना से जुड़ा होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक गीत ही सबसे ज्यादा साथ रहता है। गीतों में सबसे ज्यादा जरुरी लय होता है यदि आप ध्यान से देखें तो हमारे अंदर और बाहर सभी तरफ लय है जैसे हमारे शारीर में रक्त का संचार होता है, उसका भी एक लय है यदि लय ठीक है तो हम स्वस्थ रहते हैं रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) नहीं होता है इसी तरह से हमारी साँसें है जब वो लय में रहती है ठीक से आती जाती है तो सब ठीक रहता है नहीं तो बीमारी हो जाती है। मेरे कहने का मतलब ये है कि लय में रहना ज़िन्दगी है। यदि लय में न हो तो प्रलय हो जाती है। हमारे जीवन में जो गीत है वो हमें एक लयात्मक जीवन प्रदान करता है हमें एक मिठास प्रदान करता है। गीत हमारी भावनाओं और संवेदनाओं से जुड़ा होता है। ह

म अपने आपको गीत में अभिव्यक्त करते हैं आपनी ख़ुशी अपना गम सब कुछ गीतों के माध्यम से ही व्यक्त करते हैं। दूसरी बात मै ये मानता हूँ की गीत होठों से होंठों तक जाता है। पढ़ा लिखा व्यक्ति हो अनपढ़ व्यक्ति हो गीत सुन कर सभी गाने लगते हैं। गीत सबसे ज्यादा समाजिक होता है। गीत के अलावा कविता की अन्य विधाएं भी बहुत परिपक्व और सशक्त है बस बात ये देखनी है कि उसको प्रस्तुत कौन कर रहा है। यदि कविता को कोई परिपक्व कवि प्रस्तुत कर रहा है तो छंद मुक्त कविता भी अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती है। कविता में एक अंतरलय होती है यदि ये लय न टूटे तो छंदमुक्त कविता सशक्त ही जाती है। बस एक बात है की ये कविता होठों से होठों तक नहीं जा पाती है। अतुकांत कविता को लिखने का भी एक तरीका होता है। एक साँस में जितना बोला जा सके वो एक पंक्ति में आता है ।ऐसा नहीं कि एक पंक्ति लिखी उसको तोड़ कर दूसरी पंक्ति और तीसरी पंक्ति बना दी बस हो गई कविता तो यदि इस बात का ध्यान रख कर कविता लिखी जाये तो छन्दमुक्त कविता सुन्दर बन जाती है।

आप साहित्यिक कवि भी है और मंचीय कवि भी हैं। कविता को इस तरह से बाँटने के कारण साहित्य का बहुत नुकसान हुआ है?

मै ऐसा नहीं मानता की कविता मंच पर जाने के बाद ख़राब हो जाती है या जो कविता मंच पर नहीं गई है वो सारी अच्छी कविताएँ ही हैं। चाहे कविता मंच पर हो ,कागज पर हो ,या लोगों के होठो पर हो कविता -कविता होती है। यदि आप देखें तो जो पुराने कवि है, वो सभी कविता को बोला करते थे उनको तो बाद में लोगों ने लिपिबद्ध किया है। तो क्या वो साहित्य नहीं है। कविताओं और कवियों का ये बँटवारा बहुत ही गलत है। कविता चाहे मंच पर हो या कागज पर कविता कविता ही है। कविता जितने ज्यादा लोगों तक पहुँचती है उतनी ही अच्छी बात है। हम जब मंच पर कवितायेँ सुनाते हैं तो एक साथ लाखों लोगों तक कविता पहुंचाते हैं तो अच्छा ही है न, बुरा कहाँ हुआ, हमारे पुराने कवि मंच पर नहीं आते थे क्या ? निराला जी मंच पर नहीं आते थे क्या ? तो क्या वो महान कवि नहीं है ? मै पुनः कहना चाहूँगा की ये बँटवारा गलत है ।

आपकी कवितायेँ स्नातक और स्नातकोतर कक्षाओं में पढाई जाती है अभी तो बहुत साल हो गए हैं परन्तु जब पहली बार आपकी कवितायेँ पाठ्यक्रम में शामिल की गई तो ये कब हुआ और आपको कैसा लगा था ?

सबसे पहले महाराष्ट्र में इंटरमीडियट की कक्षाओं में शामिल करने के लिए मांगी गई थी। जब महाराष्ट्र बोर्ड में मेरी कवितायेँ शामिल की गईं तभी से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई थी इसके बाद रूहेल खंड विश्वविद्यालय में बीए की कक्षाओं के लिए मांगी गई। मुझे लगा किशायद कुँवर बेचैन अब इस काबिल हो गया की उसकी कवितायेँ पाठयक्रम में शामिल करने योग्य हो गई है।

आपके कविताओं पर बहुत से शोध हुए हैं । शोध करते समय विद्यार्थी आपसे मूलतः किस प्रकार के प्रश्न करते हैं और किस प्रकार की प्रश्नावली भेजते हैं ? अपने गाईड से पूछ करके विद्यार्थी अलग अलग विषयों का चुनाव करते हैं। फिर उसी के अनुसार मुझसे प्रश्न करते हैं जैसे किसी ने गजलों पर काम किया है तो पूछते हैं की ग़ज़ल क्या होती है ?उसको लिखने के क्या नियम है? हमारी गजलों में अध्यात्म है , प्रेम है, सामाजिक विषय भी है तो इन पर आधारित प्रश्न भी पूछते हैं और पूछते हैं की ये किन किन पुस्तकों में हैं पुस्तकों के नाम जान कर वो उसको पढ़ते हैं। ऐसे ही जो गीत पर शोध करते हैं तो गीतोँ के बारे में प्रश्न करते हैं। गीतों के जितने भी रूप है जैसे जन गीत ,नव गीत ,सामाजिक गीत इत्यादि सभी के बारे में पूछते हैं।

कुछ लोगों ने कुंवर बेचैन एक व्यक्तित्व पर शोध किया है तो वो मेरे व्यक्तिव से जुड़े प्रश्न करते हैं और मेरे लेखन में मेरा व्यक्तित्व कहाँ कहाँ झलकता है उस पर भी प्रश्न करते हैं मेरे जीवन के संघर्षों के बारे में जानना चाहते हैं फिर देखते हैं की वो बातें मेरे साहित्य में कितनी आयीं है। विद्यार्थी घर पर आते हैं ओर साक्षात्कार ले कर जाते हैं जो लोग दूर होते हैं वो फोन पर प्रश्न करते हैं नहीं तो प्रश्नावली भेज देते हैं।

आपकी रचनाओं में अध्यात्म, प्रेम, जीवन की बातें, प्रकृति सभी विषयों पर लिखा है परन्तु लिखने के लिए स्वयं आपका पसंदीदा विषय क्या है ? मै अधिकतर जीवन मूल्यों से जुडी बातें कहना परंद करता हूँ जो सामान्य आदमी है उसकी बाते मै कहता हूँ । मै मानता हूँ की कविता शब्दों की लोग सभा में एक जागरूप चिन्न्तन और संवेदनशील हृदय के द्वारा दिया गया वो बयान है जो की लोक हित में होता हैं समाज के कल्याण के लिए होता है न की केवल मनोरंजन के लिए जैसे में कहता हूँ :-----
ग़मों की आंच पर आँसूं उबाल कर देखो
बनेंगे रंग किसी पर भी डाल कर देखो
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरुर कम होगी
किसी के पाँव से कांटा निकाल कर देखो

कवि या लेखक का लेखन आपकी निगाहों में कैसा होना चाहिए? 

कविता की किसी भी विधा जैसे गीत ग़ज़ल हाइकू छंद, मुक्त दोहे,मुक्तक इत्यादि और लेखन की कॊइ भी विधा जैसे कहानी ,नाटक ,लेख ,उपन्यास इत्यादि इन सबको आपस में मिला कर यदि एक बड़ा शीर्षक दिया जाये तो वो होगा 'रचना' तो जो ये रचनाएँ हैं उनका काम दो तरह का होना चाहिए पहला तो ये की जिस प्रकार की रचना है उसको लिखने का जो भी तरीका है उसके सारे नियमों का ध्यान से पालन किया जाय जैसे गीत के जो मानक है। उनका ध्यान रखा जाये, ग़ज़ल है तो उसके बहर का पूरा ध्यान रखना चाहए कहने का मतलब ये कि हम जिस विधा में लिख रहे हैं उसको लिखने का पूरा ज्ञान होना चाहिये। दूसरी बात ये की हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारी रचना जिस समाज में जा रही वहाँ पर उसका असर कैसा हो रहा है, क्या वो रचनात्मक कार्य कर रही है विध्वंस कर रही है उसको पढ़ कर एक इन्सान बन रहा है या राक्षस बन रहा है। रचना को रचनाधर्मिता से भी जुड़े रहना चाहिए। हमारी रचना सुनने वाले को अच्छा रास्ता दिखाती है या बुरा इस का ध्यान रचनाकर्मी को रखना चाहिए। रचना कितनी भी उच्च कोटि की हो यदि उसके अंदर ये बात नहीं है की वो दूसरे व्यक्ति के पास पहुँचने के बाद उसको मनुष्य न बना सके उसको समाज से जोड़ न सके तो मेरी नज़र में वो अच्छी होते हुए भी अच्छी रचना नहीं है।

आप एक कलाकार भी है आपमें कवि के आलावा एक कलाकार भी आप में छुपा ये आपको कब पता चला ?

कविता लिखने के बाद कभी कभी कुछ रेखाएं सी खिच जाती थी बाद में जब उन पर गौर किया तो लगा की इनमे से कुछ चीजें बने जा सकती हैं तो सबसे पहले मै रेखांकन की तरफ गया। अंदर से जो भी निकला उनको बनता गया कुछ सोच के नहीं बनाया तो वो चित्र कभी चिड़िया का कभी किसी मजदूर की तस्वीर बन जाती थी। मै सोच के कुछ भी नहीं बनता था रेखाएं ही बताती थीं की किसकी तस्वीर है। मेरे कुछ मित्रों ने देखा और उन चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी तो सभी ने कहा की आप पानी के रंगों का और भी दूसरे तरीकों का प्रयोग कर सकते हैं तो फिर मैने पानी के रंगों (वाटर कलर) का प्रयोग कर के कुछ पेंटिंग बनाई उनकी भी कुछ प्रदर्शनियाँ लगी है । कुछ लगने वाली हैं मै उन पर भी काम कर रहा हूँ। पेन्टिंग ज्यादा समय मांगती है और लगातार समय मांगती है तो जब भी मुझे समय मिलता है मै घर से दूर चला जाता हूँ और चित्र बनता हूँ।

आपने कभी अपनी कविताओं पर चित्र बने के बारे में नहीं सोचा ?
जी सोचा नहीं पर एक बड़े चित्रकार है। डॉ नन्दलाल रत्नाकर हैं जो बहुत प्रसिद्ध है, उन्होंने कहा था कि एक दिन आपकी कविताओं के साथ चित्र भी बना कर लगाये जाएँ तो मैने सोचा की वही बना दें तो अच्छा है पर मैने कभी ऐसा नहीं सोचा।

आपने दूरदर्शन के धारावाहिकों के लिए और फिल्मो के लिए गीत लिखे है उनके बारे में कुछ बताइए।

फिल्मों के लिए मैने गीत लिखे नहीं मेरे पहले से लिखे गीतों को फिल्मो में ले लिया गया है जैसे कोख एक फिल्म थी उसमे मेरा गीत लिया गया वो गीत था "जितनी दूर नयन से सपना जितनी दूर अधर से हँसना /बिछुए जितनी दूर कुंवारे पाँव से /उतनी दूर पिया तुम मेरे गाँव से - इस गीत को रवीन्द्र जी ने संगीतबद्ध किया था और लताजी ने उसको गया था। इसके आलावा यू . के. में एक फिल्म बनी जिसका नाम था "भविष्य दा फ्यूचर " इस में मेरा गीत 'नदी बोली समुंदर से मै तेरे पास आई हूँ 'और ' बदरी बाबुल के अंगना जईयो /जईयो बरसियो कहियो लिया गया है। इस फिल्म को निखिल कौशिक ने बना था। करीना कपूर की एक फिल्म आई थी उसका नाम था 'कसक ' इस फिल्म में भी 'बदरी बाबुल के अंगना जईयो' इस गीत की प्रथम पंक्ति को लिया गया है। लेकिन धारावाहिकों के लिए कहानी के हिसाब से मैने गीत लिखे हैं एक धारावाहिक था "क्या फर्क पड़ता है "इसका शीर्षक गीत और इस धारावाहिक में बीच बीच में दृश्य के हिसाब से मुखड़े लिखे थे।

क्या आप पहले गीत लिख कर फिर उसको गाते हैं या आप गाते हुए ही गीत लिखते हैं कहने का मतलब की आप अपने गीतों को धुन कब देते हैं ? अब तो कुछ शब्दों और स्वर का कुछ ऐसा अभ्यास हो गया ही की गाते हुए ही लिखता हूँ। गुनगुनाता हुए जो भीतर से भाव निकलते हैं वाही गीत बन जाता है।

आपने हाइकु भी लिखे हैं जहाँ गीतों और गजलों में अपने भावों को विस्तार देने के लिए बहुत जगह होती है वहीँ हाइकु में ५-७ -५ की वर्ण गड़ना में ही लिखना होता है । कैसा रहा हाइकु लिखने का अनुभव ?

मैने सोचा कि कविताओं की हर विधा में काम किया जाये तो मैने गीत, ग़ज़ल, दोहे, छंदमुक्त कविता सभी लिखे कहने का मतलब ये की कविता की किसी विधा से मुझे कोई परहेज नहीं है। हर विधा में मै देखता हूँ की कितना कौशल मै निभा सकता हूँ, अपने भावों और विचारों को किस तरह उस विधा में लिख सकता हूँ । मै जिस विधा में भी लिखता हूँ एक ईमानदार कोशिश करता हूँ । इसी प्रकार से जब हाइकु कविता आई मेरे सामने तो मैने इसमें भी लिखा "पर्स पर तितली "नाम से मेरा हाइकु संग्रह भी आया है एक हाइकु है तितली उड़ी /जा बैठी पर्स पर /फुल उदास इस किताब की भूमिका में मैने हाइकु के बारे में सारी जानकारी दी है ताकि जब कोई इसको पढ़े तो उसको हाइकु के बारे में सब कुछ पता चल जाये ।

निकट भविष्य में आपकी आने वाली पुस्तकें कौन कौन सी है ?

मेरा एक महा काव्य है "पांचाली "नाम से, ये पूरा महाकाव्य प्रतीकात्मक रूप में लिखा है। इसको पुस्तक रूप में निकालने की योजना है । मै कवि सम्मेलनों के इतिहास पर काम कर रहा हूँ। मुझे तिरपन वर्ष हो गए हैं कवि सम्मेलन करते करते। अचानक ही सन 1980 में मुझे ख्याल आया कि मै कहाँ गया, किस संस्था ने कराया, कौन कौन से कवि आये, किस कवि ने क्या कविता सुनाई ,किसने संचालन किया, कौन मुख्य अतिथि था, इन सभी बातों को ऐसे ही कौतूहल वश मैने लिखना शुरू कर दिया । फिर लगा कि क्यों न ऐसे ही लिखता चला जाऊँ। तो जितने कवि सम्मेलन मैने सन ८० के बाद से किये हैं उनका पूरा ब्यौरा मेरे पास है।

इससे पहले का विवरण मेरे पास नहीं है। मै कोशिश कर रहा हूँ कि पुराना कुछ याद आये या कहीं से कुछ जानकारी मिल सके । फिर सब इकठ्ठा कर के पुस्तक रूप में निकालने की योजना है।

आपके परिवार में सभी साहित्य से जुड़े हैं उनके बारे में कुछ बताइए।

जी मेरी पत्नी लिखती है अभी उनका हाइकु संग्रह आया है । तीज त्योहारों में जो कहानियां कहीं जाती है वो संतोष कुँवर के नाम से निकलीं हैं । मेरा बेटा बहुत सुंदर दोहे ,गीत और ग़ज़लें लिखता है। भावना मेरी पुत्रवधू है वो बहुत अच्छे हाइकु लिखती हैं। ताका चोक भी बहुत खूब लिखती है ऐसा नहीं की वो मेरी पुत्रवधू है मै इस लिए ये कह रहा हूँ, वो वास्तव में बहुत अच्छा लिखती हैं। मेरी बेटी वंदना कुँवर है जो बहुत अच्छी ग़ज़लें कहती है और दूरदर्शन पर बहुत बार वो अपनी ग़ज़लें सुनाने जाती भी हैं।
Bhawna

27 मार्च 2013

होली में तूने

पिछले बरस जो
 


लगाया था गुलाल 


खुशबू बन


महकता आज भी
 


मेरे कपोलों पर। 










Bhawna

4 मार्च 2013

सुहाने दिन


याद आ रहे
पापा बहुत आप।
आपका प्यार
अपना परिवार।
सुहाने दिन
बिताए संग मिल।
चिन्ता न फिक्र।
आपकी स्नेही छाया।
माँ से भी खूब
था ममता को पाया
हाथ पकड़
स्कूल संग ले जाना
बस्ता उठाना।
थक जाने पर यूँ
माँ का पैर दबाना।
बड़े ज्यूँ हुए
भर गई मन में
पीर ही पीर
कहना चाहूँ
पर कह ना पाऊँ
भीगा है मन 
फिर ढूँढने चली
घर का कोना
छिपा दूँ जिसमें
आँसू की धारा
हर तरफ मिली
सीली दीवारें ,
सहमें- से सपने।
डर के मारे
पुकारती हूँ पापा-
जल्दी से आओ
अनकही -सी व्यथा
सुनते जाओ
यूँ दोबारा हिम्मत
जुटा न पाऊँ
दम सा तोड़ गई
गले में मेरे
दर्द -भरी आवाज़
अधूरी रही आस।

Bhawna

8 फ़रवरी 2013

कहाँ पहुँची मेरी पाती ? आप पढ़ना चाहेंगे ? मेरे दिल की बेचैनी को जानना चाहेंगे तो जरूर पढ़ियेगा-

हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक "देशान्तर" में मेरी भी कुछ रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं जो मुझे तो मालूम भी नहीं था काम्बोज जी ने मुझे बताया और साथ-साथ ही उन्होंने स्कैन करके मुझे भेजा भी मैं उनका तहे दिल से शुक्रिया करते हुए आप लोगों के साथ शेयर करना चाहूँगी आप सबका स्नेह ही मेरी लेखनी की ताकत है-
उषा जी का भी आभार उन्होंने मेल से सूचित किया...
प्रथम रचना बाकी २ अगली पोस्ट में :)

























  Bhawna

1 जनवरी 2013

फोटो फेसबुक पर डाले जायेंगे.... :)

आप सभी को दिल के दरमियाँ की ओर से नव-वर्ष की ढेरों हार्दिक शुभकामनायें,कल का दिन बहुत शानदार बीता सुबह गये और रात २ बजे लौटे हार्बर की रौनक होती ही ऐसी है कि पता ही नहीं चलता २० घण्टे कैसे बीत जाते हैं,पूरे वर्ष याद बनकर दिलो दिमाग पर छाया रहता है। मेरे सभी मित्रों, पाठकों का भी आने वाला ये वर्ष बहुत सारी खुशियाँ लेकर आए यही मेरी ओर से दुआएँ और शुभकामनाएँ हैं....

फोटो फेसबुक पर डाले जायेंगे.... :)




























ये साल लाये
खुशियों की बहार
ढेर सा प्यार।

Bhawna