31 दिसंबर 2008

सभी मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक बधाई!!



काँपते हाथ
पलटे कलैंडर
नये साल का।

मासूम आँखे
खोज़ती माता-पिता
सूने घर में।

सीढियाँ चढे़
सँभलकर सभी
नये वर्ष में।

उलझे रास्ते
जल्द ही सुलझेंगे
नव वर्ष में।

मोड़ भी बस
मुड़ते रहें सदा
मंजिल से दूर।

मंगलमय
सभी को नव वर्ष
दिल से दुआ।

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18 दिसंबर 2008

अनकही दास्ताँ...

आप सभी मित्रों के सहयोग और स्नेह के कारण आज़ मैं भी कर पूरी कर पाई सैंचुरी और कोई समय होता तो आप सबको केक खिलाया जाता पहले की तरह लेकिन कोई बात नहीं उधार रहा जैसे ही मूड़ अच्छा होगा आप सबको केक खिलाया जायेगा...


आज़कल कुछ अनजान सायों के बीच घिरी रहती हूँ मैं, चाहे रात का समय हो, या फिर दिन का, जिंदगी मानों थम सी गयी हो लाख चाहने के बावजूद भी खुद को सामान्य नहीं कर पाती हूँ। आज़कल बच्चों की छुट्टियाँ चल रहीं हैं, वो भी मेरा चेहरा देखकर रोज़ ही एक सवाल करते हैं-“ मम्मा आप इतना उदास और खोये-२ क्यों रहते हो ? ना ही हमारे साथ खेलते हो ना ही कहीं घूमने जाते हो, ना ही ठीक से बात करते हो हमारी तो सारी छुट्टियाँ आपके इसी मूड़ के साथ बीती जा रही हैं।“
मूड़ जी हाँ ये मूड़ भी अजीब चीज है कभी-२ कितना भी समझाओ खुद को, कि हमें दुखों से नहीं घबराना है, हिम्मत रखना है, संभालना है खुद को, पर हम हार जाते हैं,अब चाहे वह दुख मुम्बई में हुए हादसे से संबन्धित ही क्यों ना हो।

आँखों के आगे कभी शहीदों के परिवार वालों के चेहरे, कभी अपनों के बिछड़ने से रोते-बिलखते परिवार, कभी मोशे जैसे अनेक बच्चों की सिसकियाँ कानों में गूँजती रहती हैं। बस घर के अंदर बैठे-बैठे यही सब सोचते-२ तबियत भी जरा नासाज़ रहने लगी डॉ० ने कहा कि मुझे घूमना चाहिये, बस अब घर में सबकी डाँट शुरु –“चलो घूमने” अब बच्चों के प्यार और पतिदेव के प्रेमपूर्ण आग्रह के आगे भला कैसे इंकार कर पाते तो शुरू हुआ सिलसिला घूमने का कभी बाहर और कभी छत पर।

अभी कुछ हफ्तों से छत पर ही जा रहे थे क्योंकि जरा बाहर का माहौल इन दिनों यहाँ खराब सा हो जाता है, आप भी सोच रहे होंगे कि क्रिसमस और नया साल आने वाला है तो अच्छा होना चाहिये तो बुरा क्यों, जी हाँ यही तो कारण है बुरा होने का अब जिन लोगों को क्रिसमस मनाना है ,तो उनको पैसा तो चाहिये ही, पर मेहनत करना कुछ लोगों को पंसद नहीं आता तो हाथ साफ करते हैं,कभी सोने की चेन पर तो कभी मोबाईल पर हमारे कई मित्र इन अक्लमंदों के हत्थे चढ़ चुके हैं।

छत पर घूमते हुए निगाह पड़ी एक पंछी के जोड़े पर, बेहद उदास, ना ही कोई आवाज़, ना ही कोई हलचल एक दम पत्थर से बने एकटक एकदूसरे को निहारते हुए ना जाने कौन सी दुनिया में खोए हुए यूँ ही घंटों बैठे रहे। मैं जो अपनी उदासी दूर करने के लिए छत पर घूमने आई लेकिन उनकी उदासी देखकर फिर सोचने पर मज़बूर हो गई किस दुख के मारे होंगे ये बेचारे ? क्या इनके बच्चे इनसे बिछड़ गये? क्या किसी शिकारी की गोली का शिकार हो गए या फिर किसी ज्यादा ताकतवर पंछी ने इनके बच्चों को मार डाला, क्या कई दिन पहले आये तूफान ने इनका घर निगल लिया, क्या ये परदेसी हैं और अपनों की याद इनके अंतर्मन को झुलसा रही है, मैं कुछ भी नहीं समझ पाती और आकर बिस्तर पर लेट जाती हूँ, अब आँखों में नींद कहाँ बस वही पंछी का जोड़ा दिलो-दिमाग पर छाया रहता और बेसब्री से शाम होने का इंतज़ार।

अगले दिन फिर उस जोड़े को ठीक उसी समय, उसी मुद्रा में घंटों बैठे पाया एक अज़ीब सा लगाव हो गया मुझे जो बरबस ही मेरे कदम शाम होते ही छत की ओर बढ़ने लगते ये सिलसिला एक हफ्ते तक चलता रहा, तीन दिन पहले मैं जब छत पर गई तो उस जोड़े को वहाँ ना पाकर बहुत उदास मन से नीचे आ गई। अगले दिन फिर जाकर देखा वह जगह, वह मुंड़ेर सब वहीं था पर वह जोड़ा नहीं था ना जाने कहाँ गया होगा क्या अपने देश? या कि उसके बच्चे उसे मिल गये होंगे अगर ऐसा हुआ होगा तो बहुत अच्छा हुआ क्या कोई भी अपने घर परिवार से दूर रहकर सुखी हुआ है भला…

आज़ कुछ पड़ोसी मेरे पास आये और बोले कि वो हमारा नल देखना चाहते हैं हमने इज़ाज़त दे दी वो बिना कुछ कहे चले गये हमें तो समझ ही नहीं आया कि माज़रा क्या है थोड़ी देर बाद देखते हैं तो नीली वर्दी पहने कई सफ़ाई कर्मचारी धड़ाधड़ छत पर जा रहें हैं, हम बडे खुश हुए चलो इस बार नये साल पर बिना हमारे कहे छत तो साफ होगी, करीब दो घंटे बाद हम देखते हैं कि सभी मुँह पर मास्क पहने और ना जाने क्या-क्या बड़बड़ाते जा रहे थे, दिन भर सभी लोगों का आना जाना लगा रहा, जब पाँच घंटे बीत गए तो मुझसे भी सब्र नहीं हुआ मैं भी चली अपनी साफ सुथरी, सपनों की छत देखने, जब वहाँ पहुँची तो बदबू के मारे दिमाग घूम गया, समझ नहीं आया कि इतनी बदबू किस चीज़ की हो सकती है, तभी जो नज़ारा देखा उसे देखकर मेरे तो होश ही उड़ गए, दिमाग सुन्न हो गया और बरबस ही आँखों से आँसू बरस पड़े मेरी आँखों के सामने वो पंछी का जोड़ा था, जिसे पानी के बहुत बड़े टैंक से निकाला जा रहा था और उस जोड़े के शरीर में कीड़े चल रहे थे, अब मुझे सारी बात समझ आई …कि क्यों लोग हमारा नल चैक करने आये थे ? वो ये देखना चाहते थे कि क्या हमारे पानी में भी बदबू आ रही है? हुआ यूँ कि हमारे यहाँ बड़े-२ आठ टैंक हैं जिसमें से दो टैंक के ढक्कन शायद स्मैकियों ने निकलकार बेच डाले थे, जिनका हमें पता भी नहीं था, उनमें से ही एक टैंक में वो पंछी को जोड़ा मिला जिसके कारण कुछ घरों में पानी में बदबू की शिकायत थी, सभी लोग कह रहे थे-“ कि वे सभी दो दिन से उस पानी को इस्तेमाल नहीं कर रहे थे और मैं बहुत लक्की हूँ जो मेरी घर में वो पानी नहीं आ रहा था जिसमें बदबू आ रही थी, मेरा घर उस बदबू से अछूता था” लेकिन उन सभी लोगों में से ये कोई नहीं जानता कि मुझे वो बदबू नहीं मुझे छू गईं वो आँखे जो मरने के बाद भी किसी के इंतज़ार में खुली हुईं थी, मुझे छू गईं उनके प्यार की अनकही दास्ताँ...
Dr.Bhawna

6 दिसंबर 2008

मासूम पुकार...

मुम्बई में मची तबाही दिलो दिमाग से निकलने का नाम नहीं लेती तो क्या हुआ अगर परदेश में बैठे हैं हमारी आत्मा तो अपने देश की मिट्टी में बसी है नहीं सहा जाता इतना दुःख, आत्मा पर इतना बोझ की ना कुछ कहते बनता ना ही चुप रहते बनता। आज़ इतने दिन हो गये पर टी०वी० के न्यूज़ चैनल से आँखे ही नहीं हटती, ना ही थमता इन आँखों से आँसुओं का सैलाब जब भी देखती उन बच्चों को रोते बिलखते हुए, जिनका सब कुछ छीन लिया इस तूफान ने, उन बच्चों की पीड़ा को मैंने बहुत करीब से महसूस किया है उन बच्चों में मोशे और अन्य बच्चे भी हैं जिनकी दुनिया ही बदल गई । मैंने बच्चों के मन को कुछ ऐसे महसूस किया ...
माँ! कहाँ हो तुम?
कहीं भी दिखती क्यूँ नहीं?
माँ मेरी आँखों में,
दर्द होने लगा है…
तुम्हारी राह निहारते-निहारते
पर तुम नहीं आती!
माँ मुझे नींद आ रही है,
पर तुम तो जानती हो ना…
तुम्हारी गोद के बिना…
मैं सो नहीं पाता।
माँ मुझे भूख भी लगी है,
पर मुझे तुम्हारे ही हाथ से…
खाना पंसद है ना!
अब मैं बहुत थक गया हूँ…
पापा तुम भी नहीं आये!
तुम जानते हो ना पापा…
मैं तो बस तुम्हारे साथ ही घूमने जाता हूँ।
तुम्हारे बिना मुझे कहीं भी जाना अच्छा नहीं लगता!
फिर भी तुम क्यूँ नहीं आते?
पापा मुझे कोई खिलौना नहीं चाहिये!
ना ही टॉफी, ना चॉकलेट…
चाहिए तो बस आप दोनों का साथ।
आप दोनों कहाँ छिप गये?
आपको पता है ना मुझे अँधेरे से बहुत डर लगता है!
यहाँ चारों तरफ बहुत अँधेरा है…
यहाँ बहुत डरावनी डरावनी आवाजें आ रही हैं…
धुँए जैसी कोई चीज़ है यहाँ,
जिससे मेरा दम घुट रहा है!
यहाँ सब लोग जमीन में ही सोए पड़े हैं …
कोई भी हिलता डुलता नहीं है…
ना ही कोई किसी को आवाज़ ही देता,
माँ ना जाने यहाँ इतनी खामोशी क्यूँ है!
इक अज़ीब सा सन्नाटा…
मेरे चारों ओर पसरा पड़ा है,
और बाहर पटाखे चलने जैसी आवाजे आ रही हैं।
माँ मुझे बहुत डर लग रहा है,
आप दोनों कहाँ छिपे हैं?
प्लीज़ बाहर आ जाईये!
मैं तो अभी बहुत छोटा हूँ…
आप लोगों को ढूँढ भी नहीं सकता!
माँ! पापा! कुछ लोग बाहर बात कर रहें हैं…
कह रहें है आप दोनों को गोली लगी है…
आंतकियों की गोली…
माँ ये आंतकी क्या होते हैं?
पापा ये गोली क्या होती है?
क्या गोली लगने से…
दूर चले जाते हैं?
माँ कहो ना इन आंतकियों से,
एक गोली मुझे भी मार दें,
ताकि मैं भी आपके पास आ जाऊँ!
मुझे नहीं आता आपके बिना रहना!
माँ नहीं आता…
डॉ० भावना