28 अगस्त 2007

सूनी कलाई…


एक दिन था..

मैं!

अपनी सूनी कलाई को

निरखता हुआ

तुम्हारी राह देख रहा था,

मगर तुम नहीं आईं,

सुबह का सूरज

अपनी शक्ल बदलकर

चाँद के रूप में आ खड़ा हुआ

मगर तुम फिर भी नहीं आईं,

अब तो उम्मीद ने

भी साथ छोड़ दिया था,

कैसे बीता था वो दिन

आज तक भी नहीं भुला पाया।

लेकिन आज और कल में

कितना बड़ा फर्क है

आज़ वही तुम

मेरे लिये आँसू बहा रही हो,

सिसकियाँ भर रही हो,

कहाँ थी तुम जब मैं

दर-ब-दर की ठोकरें खा रहा था

अपने जख्मी दिल को लिये

इक अदद

सहारा ढूँढ रहा था

मैं अकेला

चलता रहा काँटों पर

अपने खून से लथपथ

कदमों को घसीटता हुआ

पर किसी ने नहीं देखा मेरी ओर

तुमने भी नहीं

तुम ने भी तो सबकी तरह

अपनी आँखे बन्द कर लीं

आज़ कैसे खुली तुम्हारी आँखे?

आज़ क्यों आये इन आँखों में आँसू?

क्या ये आँसू पश्चाताप के हैं?

या फिर मेरी पद, प्रतिष्ठा देखकर

फिर से तुम्हारा मन

मेरी सूनी कलाई पर

राखी का धागा

बाँधने का कर आया?

क्या यही होतें हैं रिश्ते?

उलझ रहा हूँ

बस इन्हीं सवालों में

यहाँ अपने वतन से दूर होकर

जिनका जवाब भी मेरे पास नहीं है

अगर है तो आज़ भी वही सूनी कलाई



डॉ० भावना

15 अगस्त 2007

आज़ादी की ६० वीं वर्षगाँठ पर आप सबको हार्दिक शुभकामनायें

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वतन से दूर हूँ लेकिन
अभी धड़कन वहीं बसती
वो जो तस्वीर है मन में
निगाहों से नहीं हटती

बसी है अब भी साँसों में
वो सौंधी गंध धरती की
मैं जन्मूँ सिर्फ भारत में
दुआ रब से यही करती

बड़े ही वीर थे वो जन
जिन्होंने झूल फाँसी पर
दिला दी हमको आजादी
नमन शत-शत उन्हें करती



13 अगस्त 2007

एक अनकही बात



एक अनकही बात आपको बताना चाहती हूँ कि मेरे ब्लॉग ने अगस्त को वर्ष पूरा कर लिया है
इसी अवसर पर ९ अगस्त में लिखी मेरी ये रचना आप सबके लिये...

आज़ एक वर्ष पूरा हो गया

मगर मेरा ख्वाब

अभी अधूरा है,

अभी तो मुझे पाना है

सूरज़ सा तेज़

और चाँद सी शीतलता,

अभी तो मुझे पानी है

फूलों सी कोमलता

धरती सी सहनशीलता,

अभी तो मुझे चुराने हैं

कुछ रंग इन

रंगबिरंगी तितलियों से,

अभी तो मुझे लेना है

थोड़ा सा विस्तार

इस नीले गगन से,

अभी तो मुझे लानी है

थोड़ी सी लाली इस

ढलती हुई शाम से,

अभी तो मुझे

चुरानी है

थोड़ी सी चमक

इन चमचमाते तारों से,

अभी तो मुझे लेनी है

थोड़ी सी हरियाली

इन लहलहाते खलियानों से,

अभी तो मुझे पानी है

नदी सी चंचलता और

पहाड़ सी स्थिरता

हाँ तभी तो होगा

ये ब्लॉग पूरा

इन रंगों से

सज़ा, हरा भरा

मेरे ख्वाबों की जमीं पर

सज़ा धज़ा।

डा॰भावना


10 अगस्त 2007

दिल के दरमियाँ की हॉफ सेंचुरी

आज ९ अगस्त २००७ को मेरे ब्लॉग ने अपनी आधी ज़िन्दगी जी ली है । इसी खुशी में आप सब के लिए मेरी ओर से समथिंग स्पेशल ।





सबकी सेहत को ध्यान में रखते हुए केक का जो इरादा मन में आया था उसको टाल दिया! किन्तु समीर जी कि फरमाईश पर, लीजिये हाजिर है डिलिशियस केक भी ... स्वाद बनाइये और स्वस्थ रहिए...

7 अगस्त 2007

सीखने की कोई उम्र नहीं होती



सीखने की कोई उम्र नहीं होती

कहते हैं कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ये भी कि हम हर किसी से कुछ कुछ सीखते हैं चाहे वो छोटे ही क्यों होआज मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ चलिये आप भी शामिल हो जाईये मेरे साथ

आज जरा तबियत ठीक होने के कारण स्कूल से छुट्टी ली हुई थीपर लेटा तो जाता नहीं मुझसे, चाहे कितने भी आराम की जरुरत हो, अपना मित्र कम्प्यूटर तो चाहिये ही और अगर कम्प्यूटर पर काम करना है तो अपने पसंदीदा गाने भीमैं हमेशा की तरह अपने कम्प्यूटर पर लगी थी और मग्न थी
हिन्दी के गाने सुनने मेंमुकेश जी, किशोर जी और रफी जी अपने पंसदीदा गायक हैंआज सुबह से ही रफी जी को सुना जा रहा थाएक से एक कमाल के गाने चल रहे थेवैसे मैं तो पक चुकी हूँ यहाँ के युगांडन गानों से- सुन्नो डैडी सुन्नो मम्मी सुन्नो सुन्नो, सुन्नो मकवासी याआई माम्मा एट्टी पेप्प्रो आई माम्मा एट्टी पेप्पो ….” इसी तरह के अनेकबस अब अपने वतन को तो भुला ही नहीं सकते हम, वो अपनी जान है, रहें कहीं भी पर अपना वतन तो अपना ही होता हैतो फिरअपनी सभ्यता को अपने में जिंदा रखने में जो खुशी मिलती है वो और कहाँ मिल सकती है

मैं कहाँ थी, जी हाँ सही कहा आपने तो बात चल रही थी रफी साहब के गानों की तो क्या शानदार गानेचल रहे थे- "मेरा मन तेरा प्यासामेरा मन तेरापूरी कब होगीआशामेरा मन तेरा (फिल्म-गैम्बलर) और फिर - दुख हो या सुख जब सदा संग रहे कोय, फिर दुख को अपनाइये कि जायेतो दुख होय- "राही मनवा दुख की चिन्ता क्यों सताती हैदुख तो अपना साथी है सुख है इकछाँव ढलतीआती हैजाती हैदुख तो अपना साथी है…” क्या गाने लिखे हैं लिखने वालों ने, जवाब नहीं अभी ये गाना खत्म हुआ ही था कि हमारी छुटकी ने (ऐश्वर्या) स्कूल से आकर घर में कदम रखा और गाना बज़ा- " तू हिंदू बनेगा मुसलमान बनेगाइंसान की औलाद हैइंसान बनेगा अच्छा हैअभी तकतेरा कुछ नाम नहीं हैतुझको किसी मज़हब से कोई काम नहीं है जिस इल्म ने

अब उस नन्हे से दिल से सवाल उठा- "मम्मा जो Human being होते हैं उनको तो हम हिन्दू, मुस्लिम और क्रियश्चन आदि पहचान लेते हैं, किन्तु जो Animals होते हैं उनका कैसे पता चलता है कि वो हिन्दू हैं या मुसलमान या फिर क्रियश्चन? वो तो बस ऐसे होते हैं कि युगांडन, इंडियन, आस्ट्रेलियन या अमेरिकन है ना?"

उसका
ये नन्हा सा सवाल वास्तव में बहुत बड़ा सवाल हैकाश ! हम बड़े लोग भी ऐसा ही सोच पातेआदमी की पहचान बस ऐसे ही होती- कि वो आदमी है, ही कोई हिन्दू, मुस्लिम, ही और कोई जाति बस इंसान तो इंसान हैहाँ वह इस बहुत बड़ी दुनिया में अलग-अलग जगह बसा हैकाश !! ये भेदभाव होता…, काश !! हमारा मन भी बच्चों के समान होता…, काश !! हमारी सोचें भी बस इंसान को इंसान ही समझती, कोई जातिगत इंसान नहींअगर ऐसा हो पाता तो दुनिया कितनी खूबसूरत होती, ही कोई भेदभाव रहता, सब प्यार से एक साथ मिल जुलकर रहते, ही कोई बंटवारा होता, हम सब मिलकर इस इस दुनिया को इस रूप में महसूस करें तो जो सुख हम दिल में महसूस करते हैं उसको शब्दों में बयान नहीं कर सकते

हम
सभी के दोस्त अलग-अलग जातियों में जरूर होंगेजैसे कि मेरे भी हैं मुस्लिम दोस्त हैं एक अभी इंडिया गये हुये हैं एक महीने की छुट्टी में और एक अब इंडिया जाने वाले हैं जो साल भर बाद ही मिलते हैंपर हमारा मेल का और फोन का सिलसिला जारी रहता हैएक महीना अपनी दोस्त के बिना कैसे काटा मैं ही जानती हूँ उनकी बेटियां मेरी बेटियों की दोस्त हैं जो एक साथ ही खाना खाते हैं,पढते हैं, खेलते हैं हांलाकि हम प्योर वेज़ेटेरियन हैं किन्तु वो भी इस बात का ख्याल रखते हैं कि हमें कुछ ठेस पहुँचे और हम भी उनका उतना ही ख्याल रखते हैंकाश पूरी दुनिया ही इस तरह से दोस्त बन जाये तो किसी भी माँ बाप को अपने बच्चों के कठिन सवालों के जवाब देने पडें


{ ये आलेख किसी भी धर्म को ठेस पहुँचाने के लिये नहीं लिखा गया हैआप पढ़ने वालों से निवेदन है कि इसको अन्यथा लेंकिसी को कुछ बुरा लगा हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ }

डॉ० भावना