19 मार्च 2009

“जब मौत को मैंने देखा अपने बहुत ही करीब…

अनिल कान्त जी का संस्मरण "एनोदर डे ऑफ़ माय लाइफ " को पढ़कर बीता बचपन याद आ गया…

उम्र तो ठीक से याद नहीं है, बस इतना याद है कि हम छोटे थे। हम मम्मी पापा के साथ शहर में रहते थे।हमारी इकलौती बुआजी गाँव में रहती थी। हमने कभी उनका गाँव देखा नहीं था कारण मम्मी पापाजी कभी लेकर ही नहीं गये।

हमारे बड़े भाई (बुआजी के बेटे) शहर हमारे घर आये और हम भाई,बहन को अपने साथ ले जाने की जिद करने लगे, पर हमारे पापाजी के सामने किसी की चल सकती है भला, जहाँ पापाजी वहाँ कोई टिकता भी नहीं था। मम्मी को पटाया गया हाँ वो अलग बात है कि उनको पटाने पर भी हमको भेजा तो नहीं गया एक वादा जरूर किया गया कि… वो हमें लेकर वहाँ जरूर जायेंगे।

कुछ दिनों बाद पता चला हमारी बुआजी की बड़ी बेटी की शादी तय हो गई है ।अब हमने अपनी मम्मी को उनका किया वादा याद दिलाया… बस फिर क्या था… मम्मी लगीं पापाजी की मख्खनबाजी में… और आखिरकार मम्मी ने किला फतह कर ही लिया और हम सब चल पड़े शादी का आन्नद उठाने।


शादी बड़ी धूमधाम से हुई अपने बहन -भाईयों के साथ खूब मन लगा… अब बारी थी… बिछड़ने की… हम सब लगे फूट-फूट कर रोने …हमारा रोना हमारी बुआजी से देखा नहीं गया और उन्होंने हुक्म सुनाया कि बच्चे अभी नहीं जायेंगे बाद में बुआजी भिजवा देंगी। गुस्से में हमारी बुआजी भी पापाजी की ही तरह थीं । ( वो अब इस दुनिया में नहीं हैं पिछले दिनों कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई)पापाजी से उम्र में भी बड़ी थीं, तो पापाजी को भी उनकी बात माननी पड़ी। मम्मी पापाजी के साथ लौट गईं। हम भी बेफिक्र हो अपने भाई बहनों के साथ खूब खुश रहे, खेले कूदे, जाने की भी चिन्ता नहीं थी, स्कूल खुलने में कुछ ही दिन बचे थे तो हमारे दोनों भाई (हमसे दोनों ही बड़े हैं , दो बड़ी बहनें हैं।) हमें और हमारे बड़े भाई को छोड़ने आये, अब यहीं मुसीबत आ गई… हमें पता भी नहीं था कि हम वापस कैसे जायेंगे। अब सुबह-२ तैयार हुए और चल पड़े। अब भैया ने हमें ट्रैक्टर पर बिठाया और बढ़ लिए स्टेशन की तरफ …जब तक स्टेशन पहुँचे तो मारे पेट दर्द के बुरा हाल था, इससे पहले कभी ट्रेन में भी नहीं बैठे थे ट्रैक्टर तो बहुत दूर की बात थी। कार के आदी जो थे। बस अब आ गया स्टेशन, भैया ने सख्त हिदायत दी कि- हम हाथ ना छोड़े , बहुत भीड़ थी, भैया ने समझाया कि- "हमारी ट्रेन उधर आयेगी तो हमें नीचे उतरना है पटरियों से, पुल से जाने में ट्रेन छुट जायेगी जब मैं चलूँ तभी चलना।" हमने हाँ में गर्दन हिला दी जबकि वो बता हमारे बड़े भैया को रहे थे, बस हम इन्तजार करने लगे उनके आदेश का… हम तो वैसे बहुत एक्साइटिड थे ट्रेन में जाने के …भैया ने हम दोनों का हाथ पकड़ा और नीचे कुदा दिया, लाईन पार करने के लिए… बस यहीं हमसे चूक हो गई क्योंकि नीचे उतारने के बाद भैया ने हाथ छोड़ दिया और हम लगे अपनी धुन में ना जाने क्या सोचते हुए से चले गये सीधे और लाईन कर ली पार… हमने भैया को बोला-" ऊपर चढ़ाओ" अब भैया हों तो चढ़ायें देखा सब लोग चिल्ला रहें हैं – “अरे कोई बचाओ बच्ची मर जायेगी” हमें नहीं पता कि वो किसके लिए बोल रहे थे हमारा तो बस खून सूख गया… जब देखा कि हमारे भैया लोग उधर खड़े हैं… हमने तो बस उनकी सूरत देखी और वापस दौड़ पड़े उनकी तरफ, वो भी कुछ कह रहे थे, इशारा कर रहे थे , पर हमें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था, आ रहा था बस इतना कि हम अपने भैया से बिछड़ जायेंगे अगर इधर ही खड़े रहे तो, चीखना, चिल्लाना जारी था… हम जब लाईन के बीच में आये तो कान फाड़ देने वाली आवाज को सुना, दायें मुड़कर देखा तो ट्रेन हमारे बिल्कुल पास थी, जब मौत को हमने देखा अपने बहुत ही करीब तो होश ही उड़ गए …वहाँ खड़ी औरतों की तो सिसकियाँ तक फूट पड़ी, ना जाने कैसे हमने बाकी बची लाईन पार की, उसके आगे का कुछ पता नहीं जब आँख खुली तो हम ट्रेन में थे और हमारे भैया सहित कुछ लोग हमारे ऊपर पानी के छींटे मार रहे थे, हम खुद को इसी दुनिया में पाकर आश्चर्यचकित थे और डर के मारे बोल नहीं फूट रहे थे भैया हमें समझाने में लगे थे कि -" मामाजी से कुछ मत बताना वरना वो मुझे बहुत मारेंगे "

जब
घर पहुँचे तो हमारा उतरा चेहरा देखते ही पापाजी भाँप गये कि कुछ हुआ है… उन्होंने हमारे भैया को जैसे ही आँख दिखाकर सच बोलने को कहा… हमारे भैया सुपर फास्ट ट्रेन की तरह एक ही साँस में सब कह गये… बस फिर क्या था हमारे भैया की जो धुनाई हुई,उन्हें आज तक याद है और हम हमारा तो पूछो ही मत आज भी अगर दूर कहीं ट्रेन की आवाज सुन लें तो दिल इतनी जोर से धड़कता है कि लगता है बस ये धड़कन कुछ और थोड़ी देर बस …उसके बाद एक लम्बी सी खामोशी…

डॉ० भावना कुँअर

29 टिप्‍पणियां:

Mohinder56 ने कहा…

बहुत ही सहज और आकर्षक रूप से आपने इस घटना को शब्दों में ढाला है.. हम में से प्रत्येक के जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना अवश्य घटी होती है जब लगता है कि मौत बहुत करीव से हो कर गुजर गई है

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बचपन की अनोकी याद को आपने बेहतरीन लिखा है.....
बेहद आकर्षक तरीके से बांधा है पूरी घटना को, रोचकता बनी रहती है.
कविताओं की तरह आप संस्मरण भी अच्छा लिखती हैं.

आलोक सिंह ने कहा…

कभी न कभी हर किसी ने मौत को करीब से देखा होता है , और वो वक़्त ऐसा होता है जो इन्सान कभी नहीं भूल पता है . जब मौत सामने दिखती है तो एक-एक पल बहुत मुश्किल से गुजरता है .

डॉ .अनुराग ने कहा…

अक्सर कई बार ऐसे लम्हे मानव जीवन की क्षण भंगुरता का अहसास दे जाते है

के सी ने कहा…

एक बारगी मेरी सांस भी रुक गयी पढ़ते हुए !

रंजू भाटिया ने कहा…

ऐसा ही एक बार मेरे साथ भी हुआ था ..यह पल फिर भूलते नहीं है ..

विजय गौड़ ने कहा…

बहुत ही सादगी से लिखा गया संस्मरण है। पढना अच्छा लगा।

Kavita Vachaknavee ने कहा…

जियो हज़ारों साल।

Prakash Badal ने कहा…

बहुत ही सहज और आकर्षक रूप में संजोई गई यादों का स्वर्ण कलश वाह वाह!

नीरज गोस्वामी ने कहा…

सही कहा जब कभी मौत से सामना होता है तो वो क्षण कभी भुलाये नहीं भूलते...रोचक संस्मरण.
नीरज

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

Are Baaba re ...Hum bhee dar gaye ye sun ker -- achcha hua ek Hadsa tal gaya ..aap salamat rahein !

sandhyagupta ने कहा…

Vaastav me jeevan aur mritu ke bich jyada farkh nahin hota.Har saans ke liye upar wale ka shukriya ada karna chahiye.

प्रकाश पाखी ने कहा…

बाँध देने वाली रचना थी ...अभिव्यक्ति इतनी सुन्दर थी कि पाठक स्वयम कों घटना का हिस्सा समझने लगता है ..

संगीता पुरी ने कहा…

संदर यादें बचपन की ... क्‍या खूब लिखा।

Udan Tashtari ने कहा…

बाप रे!! डरा दिया!!

अनिल कान्त ने कहा…

आपने तो हमसे भी ज्यादा मौत को अपने करीब से देखा है ...रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना बताई आपने

राज भाटिय़ा ने कहा…

बाप रे ! चलिये बच गई आप वरना यह लेख केसे पढते...:)
मेरे तो रोगटे भी खडे हो गये जब आप ने ट्रेन की बात बताई, ओर भाई को बेचारे को ...
धन्यवाद

Science Bloggers Association ने कहा…

बचपन की यादों का जवाब नहीं होता। चाहे से सुखात्‍मक हों अथवा दुखात्‍मक, उन्‍हें याद करने में एक अलग ही सुख प्राप्‍त होता है।

sandeep sharma ने कहा…

कभी-कभी जिन्दगी में एसा हो जाता है... भाव प्रणव घटना लिखी है..

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

हरियाणा में भिवानी और जींद के बीच एक गांव हैं मुंढाल. कविसममेलन में जा रहे थे. मैं, कवि अशोक बतरा और वी एम बेचैन तथ ड्राइवर, अचानक एक मोड़ पर संतुलन बिगड़ा और कार दो पलटियां खाकर गढ्डे में जा गिरी .ड्राइवर की पसली टूटी. अशोक जी को सर में दसियों टांके लगवाने पड़े. मैं और बेचैन टूटू-फूटे तो नहीं पर अच्छी तरह ठुक गये. मौत को उस दिन साक्षात अनुभव किया. अब भी वो सब याद आता है तो सिहर जाता हूं. भावना जी, मैं आपकी स्थिती को अनुभव कर रहा हूं लेकिन बस जाको राखे साईंयां मार सके ना कोय....

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar ने कहा…

भावना जी ,
बचपन में घटित ऐसे हादसे भला कैसे कोई भूल सकता है ...जिसमें मौत सिर्फ चाँद क़दमों के फासले से गुजर गयी हो ...
बढ़िया संस्मरण .
हेमंत कुमार

admin ने कहा…

आप खुशनसीब हैं कि मौत को इतने करीब से देखने के बाद भी सही सलामत हैं।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

...........एक बार तो हमारी भी जान निकल गयी थी...........आपको वापस पाया तो जान में जान आई........सच.....सांस रोक देने वाली बात थी ये..........!!

Sushil Kumar ने कहा…

खैर चलिये ,हाद्सा टल गया।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

जीवान मे कई ऐसे हादसे हो जाते है जो अन्तिम समये तक नही भुलते...आपने इस घटना को शब्दों में बखूबी ढाला है.. आकर्षक और रोचक...!!

kumar Dheeraj ने कहा…

बचपन की यादों को सहेजकर आपने ये टिप्पणी की है । टिप्पणी पढ़ने में बहुत मजा आया खासकर इन पहलुओ को पढ़ने की उत्सुकता बनी रही जिसे आपने बाद में बतलाया । मौत की कहानी बाद में आई जो मै सुनना नही पसंद करता हू । लेकिन जीवन के उस बीते छन से कैसे इन्कार कर सकता हूं । शुक्रिया

daanish ने कहा…

chhote-chhote paloN ki
badee-badee yaadeiN
poore jeevan ka sarmaya bn jaati haiN....
badhaaee
---MUFLIS---

निर्झर'नीर ने कहा…

जाको राखे साईया मार सके ना कोय
बाल ना बांका कर सके जो जग बैरी होय .

S.M.Masoom ने कहा…

एक अच्छी प्रस्तुति .