कल फर्स्ट अप्रैल पर मुझे भी मेरे बचपन की शरारतों ने आ घेरा, नींद का आँखों में नामोनिशान न था, रह-रहकर मुझे अपना मासूम, चुलबुला, प्यारा सा बचपन याद आ गया, अब तो वो मासूमियत दुनिया के थपेड़ों से कठोरता में,चुलबुलापन बच्चे और परिवार की जिम्मेदारियों में और बडप्पन में बदल गया है. लेकिन दिल तो वही है जिसमें यादों का खज़ाना हुआ है। उसी खज़ाने का एक प्यारा सा मोती आप सबके साथ बाँटना चाहूँगी…
ऐसा ही एक दिन था फर्स्ट अप्रैल का दिन, हम सभी परिवार के लोग अपने फार्म हाऊस पर गए हुए थे। हम भाई-बहिन बहुत धमा-चौकड़ी मचाते थे, शरारतें करते थे, पर पापाजी से सभी डरते थे, उन्हें देखकर तो बस साँप ही सूँघ जाता था, भूख-प्यास सब गायब हो जाती थी।
शाम का वक्त था मम्मी ने हमें बुलाया, वो रसोईघर में काम कर रहीं थी, हमसे बोली- "जाओ अपने पापाजी से कहो फार्म से अच्छा सा सीताफल ले आयें आज खट्टा मीठा सीताफल,परांठे और खीरे का रायता बना दूँगी, तुम लोगों को बहुत पंसद है ना" हमने भी खूब उछल-उछलकर कहा -"हाँ हाँ बहुत मजा आयेगा।" हमारी उम्र ६ साल रही होगी हम अपने बड़े भाई के साथ पापाजी को मम्मी की बात बताने पहुँच गए पापाजी ने कहा-“ चलो तुम लोग भी चलो” हम भी खुशी-खुशी पापाजी के साथ चल दिए। दूर-दूर तक फैले फार्म हमें बहुत भाये, चारों तरफ हरियाली ही हरियाली ,बहुत सारे पेड़ -आम,अमरूद, केले, कटहल, जामुन और भी ना जाने कितने, एक जगह पर बहुत सारी बेल फैली हुई थी जो रंग बिरंगे फूलों से सजी थी ,तब उनका नाम नहीं जानते थे, वहीं उन बेलों के पास पापाजी को जाते हुए देखा, शायद सीताफल वहीं होता है, यही सोचकर हम पापाजी का इन्तजार करने लगे जैसा कि उन्होंने आदेश दिया था।
थोड़ी देर बाद पापाजी को खाली हाथ आते हुए देखकर हमने पूछा- "क्या नहीं मिला "? तो वो बोले कि - "पहले ये बताओ कौन ले जाकर देगा अपनी मम्मी को मैंने तपाक से कहा- "मैं"। पापाजी ने कहा- "ठीक है मैं कुछ लेकर आता हूँ जिसमें उसको रख लूँ फिर तुम्हें दे दूँगा" । हमने हाँ में गर्दन हिला दी थोड़ी देर बाद वो एक कम्बल का टुकड़ा लेकर आये और वापस बेल वाले स्थान पर चले गए, वापस आये तो उनके हाथ में उस कम्बल के टुकड़े में सीताफल है सोचकर हम खुश होते हुए उनके पास पहुँचे, पापाजी ने थोड़ी दूर तक खुद ही रखने के बाद देने को बोला, क्योंकि वो हमारे लिए बहुत भारी था।
अब दरवाजे के पास जाकर उन्होंने हमें वो भारी-भरकम सीताफल दे दिया, हम ठहरे सींकड़ी पहलवान, हमसे वो सँभाले ना सँभले, पर हमने भी हार ना मानी और हम लुढकते पुडकते मम्मी के पास पहुँच गए, जो अँगीठी में कोएले डाल रहीं थी और चौकी पर बैठी थी हमने पापाजी के निर्देशानुसार जाकर, उनकी गोद में वो कम्बल के टुकड़े में लिपटा सीताफल लगभग पटक सा दिया, ताकि बोझ से निजात मिले, खाना तो बहुत पंसद था, पर आज जब उसको ढोना पड़ा तो नानी याद आ गई मैं,पापाजी और हमारे भाई वही खड़े मम्मी को उसको खोलते हुए देख रहे थे मम्मी ने जैसे ही उसको खोला तो तेजी से कोई चीज कूदती नजर आई और पापाजी जोर से चिल्लाए अप्रैल फूल बनाया, अप्रैल फूल बनाया हम भी उनके साथ यूँ ही चिल्लाने लगे और सभी उस भागने वाले जीव के पीछे दौड़े, मम्मी सहित, जानते हैं वो क्या था जी हाँ वो तो एक कछुआ था जो दौड़े जा रहा था और हम उसके पीछे ताली बजा-बजाकर नाच रहे थे फिर वो बाहर बने एक बड़े से नाले में कूद गया और हम बस मम्मी की शक्ल देखते रहे, जो अब भी उसकी सिहरन को महसूस कर रहीं थी।
(आज़ मैं यहाँ बहुत अकेला महसूस करती हूँ, उस मिट्टी की खुशबू को, उस शीतल हवा को अपने साँसों में महसूस करती हूँ, इतने दूर बैठे अपने माँ, पा को और कभी-कभी बच्ची बन खो जाती हूँ यादों के जंगल में ...परदेसी हवा और अपने वतन की हवा में बस यही तो अंतर है...)
डॉ० भावना
23 टिप्पणियां:
april fool ke bahaane aapne apne desh ko yaad kiya...achha laga....
सही कहा अपने..........दूर बैठ कर अपनों की, अपनी मिटटी की, अपने वतन की बहूत याद आती है, छोटी छोटी बातें, छोटी छोटी खुशियाँ मन को गुदगुदाती हैं. आपका प्रसंग मधुर है. शुक्रिया सब के साथ बाँटने की लिए.
पुराणी स्मृति के झरोंके से लिखा हुआ पढ़ने को मिले ...अच्छा लगा पढ़कर
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बचपन..की मधुर ...स्मृतिया ...
bilkul sahi... purani yade humesha yaad rahtee hain
सचमुच यादगार ... हर वर्ष याद आना ही है इसे ... हमलोगों के साथ शेयर करने के लिए धन्यवाद।
बहुत ही सुंदर लगा आप के वचपन के झरोखो से यह फर्स्ट अप्रैल, बाकी आप ने जो अन्त मै लिखा वो बाते दिल को छ्र गई.. बहुत याद आते है... लेकिन हर किसी की मजबुरियां आडे आती है.
धन्यवाद
न जाने कितनी ही यादें क्षण क्षण मिट्टी की और वतन की याद दिलाती रहती हैं-बहुत सुन्दर मजेदार संस्मरण.
बहुत अच्छा लगा लेख!
ऐसे कितने ही दिन कछुए की तरह खुशियाँ बन कर आये और वक़्त की महानदी में ओझल हो गए, पीछे मुड़ कर उड़ती गर्द देखने से बेहतर है आपकी तरह यादों कि पिटारी से कुछ लम्हों को बाहर निकला जाये और दोस्तों के बीच बाँट कर सहेज लिए जाएँ.
रोचक यादें हैं ..पढना अच्छा लगा
भावना जी ,
बहुत सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है... अपने संस्मरण को .बधाई
पूनम
Very nice. I also becamed fool several times at 1st april. But not enjoyed so much like you.
bahut khoob...
यादों के दलदल में आप फसती नजर आ रही है । बचपन की यादे इतनी दलदल होती है कि जो फसता है वह बचपन के अलावा कुछ महसूस नही करता है । खासकर उम्र की उस दहलीज को पार करने के बाद दिल फिर वही जाकर ढहर जाने का मन करता है लेकिन बीते वक्त तो केवल सहेज कर रखने के लिए होता है । खैर एक अप्रेल का भी आपने खूब लुत्फ उढाया शुक्रिया
कुमार जी ऐसा तो कुछ भी नहीं हैं कि मैं बचपन की यादों के दलदल में फँसती जा रही हूँ... पहली बात तो ये कि बचपन की यादें दलदल नहीं होती ...वो तो मधुर स्मृति होतीं हैं ...हमारे सभी के अन्दर एक छोटा सा बच्चा हमेशा रहता है... जो हमें बचपन की याद दिलाता रहता है, जब हमारे बच्चे भी उस दौर से गुजर रहे होते हैं, तो वो यादें हमारे सामने आ जाती हैं... और हम बच्चों को बच्चों की तरह ही ट्रीट करते हैं, करना भी चाहिए, क्या हम बूढ़े बनकर उनके साथ खेल सकते हैं? बच्चों को तो बच्चों की भाषा ही समझ आती है... और मेरी बेटी जो अभी सिर्फ आठ साल की ही है, वो हमेशा ही मेरी बचपन की शरारतें, बातें पूछती रहती है, जो मेरे हिसाब से मधुर स्मृतियाँ हैं। उसने ही मुझसे मेरी अप्रैल के बारे में पूछा कि हम कैसे मनाते थे? तो दिन में हमारी बात हुई इसी कारण ये सब मैंने पोस्ट में लिखा।
आपने लिखा--"बीते वक्त तो केवल सहेज कर रखने के लिए होता है"
ये सहेजा हुआ वक्त अगर वक्त-वक्त पर याद आये और उसको दोस्तों के साथ बाँटा जाए तो उसमें मुझे कहीं दोष नजर नहीं आया सो बाँट लिया।
जीवनका यह पृष्ठ पलट मन
इस पर जो थी लिखी कहानी
वह अब तुझको याद जबानी
बार बार पढ़ कर क्यों इसको
व्यर्थ गंवाता जीवन के क्षण.
-बच्चन
बच्चन जी ने ये पंक्तियाँ संभवतः जीवन की कड़ुवी यादों को भूलने के लिए कही हैं. मधुर स्मृतियाँ तो मन को तरोताजा करती हैं.
हेम जी एकदम सही कहा आपने ...तभी तो इन मधुर स्मृतियों को आप सबके साथ बाँट रही हूँ ...कड़वापन कौन समझदार व्यक्ति अपने पास रखना चाहेगा ...धन्यवाद टिप्पणी के लिए...
bhavna ji
bahut hi sundar lekh , bachpan ki yaaden amit hoti hai aur man par chha jati hai aur wo amulya hoti hai .....aapne to ise padhakar hamen bhi kuch yaad dila diya hai ...
badhai
maine bhi kuch naya likha hai . padhiyenga jarur..
विजय
http://poemsofvijay.blogspot.com
हम हमेशा ही पुरानी यादों के झरोखों में झांकने का प्रयास करते है, और स्मृतियों की जुगाली कर नोस्टाल्जिया का आनंद लेते है.
यही अतीत हमें अपने उज्वल भविष्य को बनाने और संवारने को मदत करता है.
भावना जी आप ने बचपन की स्मृतिया जो अपने लेख के माध्यम से हम सब तक पहुंचाई बहुत ही अच्छी लगी,आप की बात से सहमत हूँ की हम सब में एक बच्छा हमेशा रहता है ,कुछ बाते जो हम बचपन में नहीं कर पाते, कुछ सपने जो अधूरे रह जाते है वे हमेशा याद बन कर साथ साथ चलते हैकई बार हम सोच लेते है कह भी देते है की काश हम भी बच्चे होते,कुमार धीरज जी की बात से मै भी असहमत हूँ यादें दलदल नहीं होती यादें तो फूलों की क्यारियां होती है .आप की रचना पढ़ कर मै भावुक हो गया हूँ भावना जी बहुत पहले मैंने मेरे बचपन पर एक कविता लिखी थी ,पता नहीं आपको ये बात अच्छी लगेगी या बुरी पर मै आपको वह कविता प्रेषित करने का दुस्साहस कर रहा हूँ
मेरा बचपन
कोई खिलौना सा टूट गया है मेरा बचपन
टूटे खिलोने सा कहीं छुट गया है मेरा बचपन
कितना खुश था कितना सुख था बचपन की उन बातों में
समय का जालिम चेहरा आकर लूट गया मेरा बचपन
हंसता खिलता सबसे मिलता ,एक जिद्दी बच्चे जैसा
जाने किस की नज़र लगी और रूठ गया मेरा बचपन
गुल्ली डंडा ,गोली कंचा ,डोर पतंग सी उमंग लिए
रंग बिरंगे गुब्बारों सा था ,क्यूँ फूट गया मेरा बचपन
रोचक संस्मरण......
बहुत दिनों से ऐसा लगता है कि आपने लिखना बंद कर दिया है तभी तो न ही कोई नई पोस्ट आ रही है औऱ न ही आपकी अभिव्यक्ति । धीरज कुमार
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