4 अप्रैल 2011
माँ की डायरी
आओ मेरी नन्हीं गुडिया मेरे पास आकर बैठो...
बड़की तुम भी आ जाओ माना कि तुम बड़ी हो गई हो ...
सब सुख-दुख अच्छा-बुरा समझती हो ...
पर अभी भी ज़रूरत है तुम्हें कुछ बातों को समझने की ...
लगता नहीं अब मैं देख पाऊँगी अगला सावन...
बड़की तुम्हें छुटकी को , दिखाना होगा सही रास्ता ...
मत भटकने देना इसे बिन माँ की बच्ची की तरह...
सुबह उठना होगा तुम्हें,
तैयार करना होगा नन्हीं का
अब ! टिफिन क्या बनाना है
सब लिख दिया है मैंने एक डायरी में ...
क्या पहनाना है ?
कब स्कूल छोड़ना है ?
कब लाना है ?
होमवर्क कैसे कराना है ?
कब सुलाना है ?
क्या पंसद है ?
क्या नापंसद है ?
कब उदास होती है ?
क्यूँ उदास होती है ?
सब लिखा है मेरी डायरी में ...
तुम्हारे लिए भी कुछ लाइनें हैं
अगर जरूरत समझो तो पढ़ लेना ...
वैसे तो तुम समझदार हो गई हो ...
पर जरा बेख्याली में मत चुन लेना काँटे...
अपने दामन में संभाल कर रखना मेरी डायरी ...
जो पग-पग पर देगी तुम्हें सहारा
और मेरे जिंदा होने का एहसास ...
और छुटकी तुम घबराना मत
ना ही रोना मैं हमेशा ही तुम्हें देखूँगी ...
उस चमकीले तारे के माध्यम से ...
बस अब मेरे पास ही बैठो न जाओ दूर मुझसे ....
क्योंकि मुझे जाना है फिर अनन्त यात्रा पर ।
Bhawna
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15 टिप्पणियां:
आप सब को नवसंवत्सर एवं नवरात्रि पर्व मंगलमय हो.
Aah! Meree aankhon se to taptap paanee bahne laga!
बहुत दिनों बाद आपकी कविता पढ़ने को मिली । इस कविता को पढ़कर तो दिल ही बैठने लगता है। आने वाले समय की कठोर जिम्मेदारियाँ बहुत ही मार्मिकता से पेश की गई हैं। लगता निराशा का सावन ही आपने प्रवाहित कर दिया है । भावना जी निराशा भरे पलों में इस कविता का समापन न कीजिए ।
बहुत निराशा और उद्वेलन से भरी है आपकी यह कविता । व्यथा से पूरी तरह सिंचित , मन को रुला देनेवाली । ऐसी कविता को करुण रस की स्थिति में रखा जा सकता है । इसे पढ़कर कुछ का तो दिल ही बैठ जाएगा और उन कुछ में मैं भी हो सकता हूँ। भावना जी क्या इसका अन्त बदल नहीं सकता ?
काम्बोज जी दुःखद अन्त को सुखद अन्त में जरूर बदला जा सकता है, क्योंकि चन्द लाइनों का हेरफेर है पर क्या मृत्यु जैसी सच्चाई को हम बदल सकते है? शायद नहीं बस यही तो हमारे हाथ में नहीं है, उसी दर्द को महसूस करने की कोशिश की है वैसे मुझे कोई एतराज़ नहीं अगर आप कुछ पंक्तियाँ जोड़ना चाहें तो, जानकर अच्छा लगा कि मैं पाठकों तक उस दर्द को पहुँचा पाई जिसे मैंने महसूस किया...
भावना जी बहुत ही तन्मयता से आप द्वारा लिखी इस कविता ने मन को बहुत देर तक सोचने पर विवश कर दिया है |कमाल की रचना /कविता है आप अविराम लिखती रहें |शुभकामनाएं |
माँ की ज़िम्मेवारियों का कोई अंत नही ... शायद इसी लिए वो माँ है ...
bhawna ji aap ne sahi ant hi sach hai aap ne jo likha uska darad dil tak pahuncha hai darad se mera kuchh ajib rishya hai patanahi kyu sabhi ka darad jaldi se mahsus kar leti hoon fir aapne likha bhi bahut achchha hai.
badhai
rachana
अंतिम पंक्तियाँ दिल को छू गयीं सुन्दर रचना, बधाई
बेखयाली में मत चुन लेना कांटे, चमकीले तारों के माध्यम से देखने का आश्वासन । बडी बेटी को छोटी का खयाल रखने की सलाह और डायरी लिख कर इस नश्वर संसार से विदा लेना ताकि बच्चों का डायरी मार्गदर्शन करती रहे । बहुत ही भावुक रचना ।
माँ ऐसी ही तो होती है...बहुत भावपूर्ण.
बहुत मार्मिक है...। मन को गहरे तक छू जाती है...।
बहुत दिनों के बाद आपकी कविता पढ़ने को मिली | उफ़ ...इतना दर्द ....हर शब्द मन में तो उतरता चला ही गया ...साथ -साथ दिल को दर्द से भरता चला गया !कितना करीब से देखा है आपने जिन्दगी का सच्च जिसे हम जानते हुए भी अनदेखा क्र देते हैं | आपकी कलम को सलाम !
हरदीप
यह दर्द तो साँझा है... हर दिल का है... एक ना एक दिन सब गुजरते हैं इस पीड़ा दाई क्षण से... आपकी रचना पाठक के मनोमस्तिष्क से जो सम्बन्ध जोड़ती है वही इस रचना की आत्मा है ... माँ एक अहसास..एक चाहत..एक सपना... एक जरुरत..एक ख़याल और एक चमकता हुआ तारा जो हमेशा साथ रहता है और हर अँधेरे में राह दिखाता है.
बेहद मार्मिक रचना, पढ़ती गई और मेरी आँखें भींगती गई. सच में माँ जीवन के अंतिम पल तक बेटी की जवाबदेही निभाती है और एक बड़ी बहन के रूप में वो भी माँ की हीं तरह बन जाती है जब उससे माँ छिन जाती है. उस माँ की तड़प जाने कैसे दिल में समा गई...
भावपूर्ण रचना केलिए बहुत बधाई भावना जी.
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