15 अगस्त 2018

नफ़रत पर प्रेम का रंग


पुस्तक समीक्षा    
डा. सुरेन्द्र वर्मा
 भावना कुँअर / ज़रा रोशनी मैं लाऊँ (काव्य-संग्रह) /अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ,वर्ष : 2018; पृष्ठ:140, मूल्य: 150 रुपये
    डा. भावना कुँअर एक सकारात्मक सोच की कवयित्री है । वे देश में बढ़ती अराजकता, आतंक,
अत्याचार अंधेरगर्दी और आडम्बरों को देख कर सहज ही विचलित हो जाती हैं । रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझते हुए आम आदमी को देखकर उनके मन में उसके लिए सहानुभूति उमड़ पड़ती है । लड़की के विवाह हेतु दहेज़ के लिए पैसा जुटाते पिता को जुगाड़ करते देख वे व्यथित हो जाती हैं । रिश्तों को टूटते देखना वे गवारा नहीं कर पाती । लेकिन वे टूटती नहीं । मुकाबला करती हैं । कलम की ताकत वे अच्छी तरह समझती हैं । वे जानती हैं कि सिर्फ सकारात्मक सोच के प्रति, प्रतिबद्ध लेखनी ही उजेला और प्यार फैला सकती है –
छाया घना अन्धेरा / ज़रा रोशनी मैं लाऊँ
यह सोच कर कलम को / मैंने उठा लिया है ---
नफ़रत पे प्रेम का रंग / थोड़ा चढ़ा दिया है  
                     (ज़रा रोशनी मैं लाऊँ)
   आज की दुनिया उन्हें भाती नहीं । परेशान होकर वे अपने आराध्य को पुकारती हैं और उसे पाती लिखती हैं,  कहती हैं, ‘खून खराबा है गलियों में’, ‘उजड़ गए हैं घर और आँगन’,  फैल रही नफ़रत जन जन में’,और  ‘दुखों की बस्तियों में बस आंसू का बसेरा है’ । वे महसूस करती है –
‘’सर्दी की सुबह / धुंध ने जो उढ़ाई चादर
भूल जाती है समेटना ,  
आता है सूरज / हौले हौले कदमों से
और अपनी किरणों से / छिपा लेता है चादर
बेचैन हो उठाती है धुंध’’
                        (धुंध)
   वही है वह आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच ( ‘आता है सूरज’ ) जो डा. कुँअर की कविताओं में साफ़ झलकता है । दर्द और प्रेम, भावना जी की कविताओं के ये दो प्रमुख भाव हैं, जिन्हें बड़े यत्न से उन्होंने अपनी कविताओं में परोसा है ।
   समुद्र अपनी लहरों को बार बार बाहर फेंकता है । पर लहरें हैं  कि वे फिर भी सागर के दिल में समा जाना चाहती हैं । ऐसा आखिर क्यों होता है । ज़ाहिर है इसका एक ही जवाब है – प्रेम । कवयित्री इस प्रेम से उपजे दर्द को समझने की कोशिश करती है । वह -
बाँटना चाहती थी उन लहरों का दर्द
क्यों समुन्दर उठा कर उन्हें बाहर फेंकता है
क्यों फिर भी वे समाना चाहती हैं
सागर के दिल में –‘’
                    (दर्द के मायने)

कवयित्री खोजना चाहती है इसका जवाब । कोई उत्तर नहीं मिलता-

‘खो गए कहीं शब्द मेरे
खोजती रही पर मिले ही नहीं
दीये से पूंछा
पहाड़ हवा
और पंछियों से पूछा
पर सब मौन रहे
पर मैं निकाल लाऊँगी इन सबके भीतर से
मेरे वो प्यार भरे शब्द
जो देते हैं मुझे
मन का चैन बिना मांगे ही
और भर देते हैं मेरे सफ़ेद कागज़ को
अपने प्यार की स्याही से
और फिर रच जाती है
फिर से एक रचना”  
                (खोए थे जो शब्द)
   हर सर्जन के पीछे प्रेम होता है । कवयित्री चाहती है ‘प्यार के छींटें / बरसें सब पर / जैसे बरखा / सावन में”  (प्यार के छीटे) । किन्तु प्यार वही है जो नि:स्वार्थ हो । बनावटी प्रेम से तो,
‘घिन आने लगी है मुझे अब
हमदर्दी से लिपटे शब्दों से
उनमे बू आती है स्वार्थ की” 
            प्यार की अपनी कोई मंजिल नहीं होती । प्रेम तो अपनी मंजिल खुद ही है । भावना जी कहती हैं,
‘दोस्त तो बहुत मिले
इस ज़िंदगी में
पर जब जब वो मिले
मैंने उन्हें मंजिल समझा
पर वो पड़ाव थे”  
                     (मेरी मंजिल)
    ‘ज़रा रोशनी मैं लाऊँ की कवयित्री का जन्म भारत में हुआ ,लेकिन वह अब वर्षों से आस्ट्रेलिया (सिडनी) में रह रही हैं । पर उनकी साँसों में आज भी अपने वतन की खुश्बू ताज़ा है ।
‘वतन से दूर हूँ लेकिन / अभी धड़कन वहीं बसती
वो जो तस्वीर है मन में / निगाहों से नहीं हटती
    आज भी वतन पर ज़रा-सी आँच आती है तो सात समुन्दर पार बैठा उनका मन रो उठाता है । आतंकवाद के चलते बिलावजह बेगुनाहों को मारे जाने से उनके अन्दर एक खलबली सी मच जाती है, मन चीत्कार कर उठता है । ऐसे समय में बस उनकी अपनी कलम ही उन्हें पुकारती है और अपने आराध्य को पाती लिखने के लिए मजबूर करती है ।-
‘खून खराबा है गलियों में / छिपे हुए हैं बम कलियों में
है फटती धरती की छाती / तभी तुम्हें लिक्खी है पाती 
   कवियित्री को परदेस में मौके-बमौके अपने परिजन खूब याद आते हैं । उनसे बिछड़ने का दर्द उभर आता है और बहुत सालता है । माँ की याद, माँ की खुश्बू, माँ की निकटता, दुःख के दिनों में उनके पास न हो पाना- ये सभी स्थितियां कवियित्री को कचोटती हैं । ‘माँ की डायरी’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें ये सारी सम्वेदनाएं बहुत ही काव्यात्मक रूप से मुखर हुई हैं ।
   परदेसी संस्कृति के बीच बैठे कितना दुरूह हो गया है नाते-रिश्तों को निभा पाना । कवियित्री कहती है ‘बहुत दुखी हूं मैं / इन रिश्ते नातों से / जो हर बार ही दे जाते हैं / असहनीय दुःख” । लेकिन वह निराश नहीं होती । कभी तो यह पत्थरों का शहर भावनाओं का शहर होगा, इस सकारात्मक सोच के साथ
फिर लग जाती हूँ
इनको निभाने में
इस उम्मीद क साथ 
कि कभी तो सवेरा होगा
               (रिश्ते-नाते)
    चहरे पर पडी सिलबटें, जवान की हो या वृदध की, किसी को भी परेशान कर सकती हैं । एक बुज़ुर्ग का वक्तव्य कभी पढ़ा था कि मेरे चहरे की झुर्रियां सिर्फ यह बताती हैं कि मैं कितनी बार हंसा हूँ । कुछ इसी अंदाज़ में डा. भावना कुंवर भी तो कहती हैं –
‘चहरे पर पडी सिलबटें
आज पूछ ही बैठीं
उनसे दोस्ती का सबब
मैं कैसे कह दूँ कि
तुम मेरे प्यार की निशानियाँ हो    
                (सिलबटें)
    भावना जी एक से बढ़कर एक काव्यात्मक छबियाँ उकेरने में दक्ष है । सुनहरे और मन चाहे दिन भी यादों में ही रह जाते हैं । लेकिन इन यादों की भी तो अपनी कितनी सुगंध होती है –
‘सुनहरे सुनहरे वो प्यारे प्यारे दिन
जाने कौन ले गया लम्हां-लम्हां गिन
इतर की खाली बोतल से रह गए
थोड़े महकते थोड़े खुशबू से भरे दिन
                  (खुशबू से भरे दिन)
   बेशक एक चिड़िया की तरह ही मनुष्य भी उड़ना चाहता है । लेकिन उड़ने की अपनी उतावली में वह न तो अपने आगे बढनें में आये अवरोधों को देख पाता है और न हीं उन खतरों को जान पाता है जिनसे उसे खुद को बचा के रखना है –
‘अपनी उड़ान की तीव्रता में / नहीं देख पाई वो
खिड़की पर लगे शीशे को ---
लुप्त हो गई उड़ान / दूर कहीं अंतरिक्ष में
हमेशा के लिए     (ऊँची उड़ान)
एक चिड़िया -- / अपने सपनों की दुनिया में
खोई सी / अचानक उडी /
बचना चाहा / पर गिर पडी / न जुटा पाई साहस
उस दीर्घकाय परिंदे से / खुद को बचाने का     (अनभिज्ञ चिड़िया)
   डा. भावना कुँअर की कवितायेँ प्राय: छोटी छोटी ही होती हैं, लेकिन उनके इस संग्रह में कुछ कविताएँ इतनी लघुकाय हैं कि उन्हें बड़े इत्मीनान से ‘क्षणिकाएं कहा जा सकता है । ‘शिकन’,’सिलबट’, समेटते हैं अब’, ’तस्वीर’,चाहत’, ‘प्यार’, ‘दर्द’, ‘तोहफा’, ‘प्यार के छींटे’  इत्यादि, कुछ ऐसी ही कविताएँ हैं । इनमे से एकाध कविता मैं पहले ही उद्धृत कर चुका हूँ । दो-एक सुन्दर क्षणिकाओं को उद्धृत करने का लोभ मैं सवरण नहीं कर पा रहा हूँ –
प्यार की गहराइयों में
उतरे हम इस कदर
हमें भनक तक न लगी
पर अस्तित्व गवाँ बैठे   
              (प्यार)
समन्दर में उठे तूफ़ान-सी
कभी उमड़ती थी तेरी याद
आज तूफ़ान से पहले की
खामोशी-सी क्यों छाई ?  
              (चाहत)
   डा, भावना  कुँअर ऐसा ही और इससे भी सुन्दर लिखती रहें, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ।
-0-
डा. सुरेन्द्र वर्मा। (मो। 9621222778) , 10, एच आई जी / 1, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद-211001
 
 
 

3 टिप्‍पणियां:

सहज साहित्य ने कहा…

डॉ वर्मा जी ने बहुत परिश्रमपूर्वक और मनोयोग से लिखा। आपकी इस उदारता को नमन।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Dr. Verma ji aapka kin shbadon se shukriya ada karun samjh nahi aa raha, itni bariki se pustak ko aapne padha manan kiya or pure man se ye samiksha likhi aapke hrdya se aabhar karti hun jo bahit chhota hai naman hai aapko 🙏🏻Yun hi sneh milta rahega yahi aasha hai aabhar

कविता रावत ने कहा…

भावना कुँअर की 'ज़रा रोशनी मैं लाऊँ' काव्य संग्रह की बहुत अच्छी समीक्षा प्रस्तुति, उन्हें हार्दिक बधाई!
अपना देश अपना ही होता है तभी तो परदेश रहते हुए कोई भी उसकी यादों से दूर नहीं होता
आपको समीक्षा हेतु और स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!