ज़रा रोशनी मैं लाऊँ : निराशा के अँधेरों में आशा की दीपशिखाएँ
-डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
जीवन की
मधुर-तिक्त अनुभूतियाँ ,कल्पनाएँ , भावनाएँ जब सहृदय आह्लादकारिता अथवा रसव्यञ्जकता से परिपूर्ण शब्दार्थ-युगल के माध्यम से उतरती
हैं तो, सुन्दर काव्य का सृजन होता है ,
भले ही वह स्फुट अलंकारादि से सुसज्जित न भी हों ।
‘तद्दोषौ शब्दार्थौ
सगुणावनलङ्कृती पुनः क्वापि’ से आचार्य मम्मट ने काव्यत्व को विनष्ट करने वाले
दोषों का निषेध और रस निष्ठ माधुर्यादि गुणों की समन्विति का विधान किया ।ध्वनि,
वक्रोक्ति से ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ एवं
‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यं’ इत्यादि तक और अद्यतन भी अनेक विद्वानों ने
काव्य और कविता को अपनी-अपनी तरह कहा है ,
परन्तु उसकी रस-निष्ठता तो प्रायः सर्वत्र रही ।काव्य का
‘सत्यं,शिवं,सुन्दरं’
से समन्वित स्वरूप ही स्वीकार्य रहा ।
अब रस क्या है
और उसकी निष्पत्ति कैसे होती है ,कविता और रस का क्या सम्बन्ध है इसे प्रचलित रस सिद्धांत के
प्रथम आचार्य भरत मुनि के रस सूत्र -‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति’ पर
आचार्य मम्मट की कारिका ‘कारणान्यथ कार्याणि ....’ इत्यादि के द्वारा बहुत अच्छी
प्रकार से समझा जा सकता है ।लोक में बार-बार व्यवहार से सुन्दर स्त्री आदि के
प्रति रति आदि भाव मानव- हृदय में संस्कार रूप से विद्यमान रहता है ,
काव्य में वही स्थायी भाव है ।उसके कारण स्त्री ,
चंद्रोदय आदि विभाव, उपरान्त कार्य यथा – कटाक्ष आदि अनुभाव और रति आदि स्थायी भाव को बीच-बीच में
पुष्ट करने वाले भाव अर्थात् संचारी भाव कविता में प्रयुक्त होने पर सहृदय के हृदय
में सोए स्थायी भाव को व्यक्त कर , अद्भुत आनंद की स्रोतस्विनी प्रवाहित करते हैं ।
इस प्रकार
लोक-व्यवहार और कविता का सम्बन्ध शाश्वत है ।कवि एवं कविता के आस्वादक सहृदय के
लिए लोक से जुड़ा होना अनिवार्य है ।उदात्त भाव भरा ,
लोक अनुरञ्जनकारी ,
सरस काव्य सदा समाज को प्रभावित करने में समर्थ होता है ,
फिर चाहे वह छंदोबद्ध हो ,
मुक्तछंद अथवा छंदमुक्त ।लोक वर्णना निपुण कवयित्री डॉ.
भावना कुँअर के काव्य- संग्रह ‘ज़रा रोशनी मैं लाऊँ’ की
कविताएँ भी जन-मन से जुड़ी ऐसी कविताएँ हैं , जो जीवन के प्रायः प्रत्येक पक्ष को
स्पर्श करती चलती हैं ।अपने चारों और विद्यमान हर वेदना- संवेदना को कवयित्री ने
जैसे आत्मसात कर लिया है ।तभी तो वह निष्ठुर समाज में व्याप्त संवेदनहीनता के
अँधेरे को अपनी कलम के माध्यम से उजालों से भर देने,
घावों पर मरहम लगाने और नफरत पर प्रेम का रंग चढ़ा देने का
संकल्प लेती हैं -
छाया घना
अँधेरा
ज़रा रोशनी
मैं लाऊँ
ये सोचकर कलम
को
मैंने उठा
लिया है...
सहज,
सरल रची कविताओं में मन का आवेग तीव्रता से व्यक्त हुआ ,
चतुर्दिक खून-खराबा ,
बमों के धमाके कवयित्री के हृदय को विदीर्ण करते हैं और वह
व्यथित होकर इस सारी दुर्दशा को स्वयं ईश्वर के प्रति पत्र लिखकर निवेदित करती हैं
-
खून-खराबा है
गलियों में,
छिपे हुए हैं
बम कलियों में,
है फटती धरती
की छाती,
तभी तुम्हें
लिक्खी है पाती...
अपने देश की
पुण्य स्मृतियाँ भला किसके मन को द्रवित नहीं करतीं ।कवयित्री के हृदय में भी अपनी
मातृभूमि और उसपर अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीद बेहद सम्मान और श्रद्धा के
साथ बसे हैं ।भारत के लिए कहती है-
वतन से दूर
हूँ लेकिन
अभी धड़कन
वहीं बसती...
वो जो तस्वीर
है मन में
निगाहों से
नहीं हटती...... और ... शहीद भगत सिंह के लिए ममत्व से भरा उनका हृदय पुकार उठा-
फाँसी का फंदा
कसता गया
फिर भी भगत
मेरा हँसता रहा...
काश! एक नहीं
मेरे होते हज़ार बेटे
तो वो भी
हँसते-हँसते यूँ ही जान दे देते...... वीर शहीदों और भारत के प्रति श्रद्धा ,
प्रेम प्रदर्शित करती भावना जी की अन्य कविताएँ भी बेहद
प्रभावी हैं ।
उम्र के किसी
भी पड़ाव पर माँ की सुख भरी गोद भुलाए नहीं भूलती ।
‘माँ’ एक शब्द मात्र नहीं ,
एक ऐसा अहसास है जो हर उमंग ,
खुशी का संवाहक है और हर दुःख का मरहम भी ।माँ को समर्पित
कवयित्री की कविताएँ बेहद भावुक करने वाली हैं ।यूँ तो किस घड़ी माँ याद नहीं आती ,
परन्तु जन्मदिन पर दूरियाँ जैसे तड़पा देती हैं फिर चाहे वह
अपना हो या माँ का ।कवयित्री कह उठती है एक सार्वभौमिक सत्य-
माँ मुझे भी
प्यारी है, माँ तुम्हें भी प्यारी है...
माँ इस दुनिया
में, सबसे ही न्यारी है...
‘माँ की खुशबू’, ‘माँ की डायरी’माँ के प्रति संतान के कर्तव्यों का स्मरण
कराती , उसके साथ बिताए एक-एक पल को याद करती बेहद भाव पूर्ण ,
मर्मस्पर्शी कविताएँ बेहद भावपूर्ण हैं ।बूढ़े पेड़ की व्यथा
के व्याज से एक मार्मिक दृश्य देखिए –
लगा रहता रोज
ही
जैसे नया मेला
वक्त गुज़रा...
बूढ़ा गया अब
पेड़
थका हारा-सा
और मज़बूर-सा
पर पंछियों को
जाने क्यों ...
जरा भी पता ही
न चला...
आतंकवाद आज
किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं , संक्रामक रोग की तरह फैलता जा रहा यह रोग एक ऐसी विकृति है
जिसने सम्पूर्ण मानवीयता को जैसे ग्रस लिया है ।किसी न किसी रूप में सर्वत्र
विद्यमान है ।दूसरी बुराइयों की तरह आतंकवाद की विभीषिका पर भी कवियों ने खूब लिखा
है ।भावना जी की कलम से एक मार्मिक दृश्य देखिए-
माँ कहाँ हो
तुम?/ अब मैं बहुत थक गया हूँ…
पापा तुम भी
नहीं आए!
.........
धुँएँ जैसी
कोई चीज़ है यहाँ,/ जिससे मेरा दम घुट रहा है!
यहाँ सब लोग ज़मीन
में ही सोए पड़े हैं…/कोई भी हिलता- डुलता नहीं है
........
और बाहर पटाखे
चलने जैसी आवाज़ें आ रही हैं।
माँ मुझे बहुत
डर लग रहा है,
आप दोनों कहाँ
छिपे हैं?
.........
माँ! पापा!
कुछ लोग बाहर बात कर रहें हैं…
कह रहें है आप
दोनों को गोली लगी है…
.........
माँ कहो ना इन
आंतकियों से,
एक गोली मुझे
भी मार दें,
ताकि मैं भी
आपके पास आ जाऊँ!
मुझे नहीं
आता...
आपके बिना
रहना!
माँ नहीं
आता...
अकेले जीना...
कन्या-भ्रूण
हत्या पर कवयित्री की संवेदनाएँ जगाती कविता
समाज को आईना दिखाने का काम करती है-
क्यों है मेरे हिस्से में
सिर्फ कचरे का
डिब्बा ...
क्यों नहीं माँ का आँचल
पिता का दुलार
ऐसा करते
हुए...
क्यों नहीं काँपते हाथ
क्यों नहीं धड़कता दिल
क्यों नहीं तड़पती आत्मा !
ऐ ! मुझे यूँ
मारने वाले सुन...
तुम तो मुझसे
पहले मर चुके हो
आज के रिश्तों
पर अलग- अलग रचनाएँ मन को छू जाती हैं । ‘अनोखा रिश्ता’ एक समर्पण का तो ‘सूनी कलाई’ और
‘रिश्ते-नाते’ रिश्तों की स्वार्थपरक कटु सच्चाई का निदर्शन है –
मैं हर बार
हार जाती हूँ.../ इन रिश्तों से/पर फिर भी
हताश नहीं
होती/फिर लग जाती हूँ... /इनको निभाने में
कितने
बाल-दिवस मनें और कितने बाल-वर्ष लेकिन नन्हे हाथों को जो समाज कलम-किताब की जगह
कचरे का थैला या फिर पत्थर और बम थमाए वह सुन्दर भविष्य की चाहना भी कैसे कर सकता
है ।उनके मन की बगिया से नन्ही गिलहरी , छोटी चिड़िया ,तितली, सर्कस के मनभावन चित्र मिटाकर विषबेल बोता समाज कवयित्री की
लेखनी की धिक्कार का पात्र है-
नंगे बदन,
नंगे पाँव/दिनभर दौड़-धूप करते/तब कहीं जाकर
आधा पेट खाना
पाते/ इन्हें इस हाल में देख /मेरा मन व्याकुल हो उठता
अन्तर्मन
आँसुओं से भर जाता /नहीं देख पाती मैं... /इनको इस हाल में;
नन्ही कलियों
से लेकर उम्र दराज महिलाओं तक के साथ घटती बलात्कार की घटनाएँ आए दिन अखबार की
सुर्खियाँ बनती हैं ।ऐसी सुर्खियाँ जिन्हें सीधे-सीधे कहना भी शर्म और घृणा की वजह
हो जाता है ।कविता के माध्यम से भावना जी ने कहा है-
एक चिड़िया.../आई फुदकती –सी
...............
सारी चंचलता,
कोमलता/ नष्ट हो गई /न जुटा पाई
साहस/उस दीर्घकाय परिंदे से/खुद को बचाने का...
तितली,
चिड़िया, दीप, मछली सबके दर्द को कहती कवयित्री अपनी सृजन यात्रा में अपनी
कविताओं से मानव-मन के सुख-दुःख साझा करती हैं ,
साथ ही रौशन करती हैं ‘आस का दीया’-
शाम की रंगीन
गुलाबी धूप...
मेरे अन्तर्मन
में
जगा देती है
एक
आस का
दीया....
...फिर पुकारती हैं उन खुशियों को जो जीवन को मधुमय कर दें-
फुरसत से घर
में आना तुम
और आके फिर ना
जाना तुम।
मन तितली बनकर
डोल रहा
बन फूल वहीं
बस जाना तुम ।...
ऐसी ही
स्वाभिमान ,आशा, उल्लास और प्रेम के उजालों से भरी कवितायें हैं –‘भावों को
तुम बहने दो’ , ‘प्यार के छींटे’ , ‘नया साल’ और ‘मेरे हमसफ़र’ ,...
और भी विविध भावों से अनुप्राणित क्षणिका ,
मुक्तक , लम्बी कविताएँ, दोहे पुस्तक की विशेषता हैं ।सहज,
सरल जैसा आया वैसा कहा ।कविताओं की यही सहजता मुग्ध करती है
।एक क्षणिका देखिए –
प्यार की
गहराइयों में
उतरे हम इस
कदर...
हमें भनक तक न
लगी
पर अस्तित्व
गवाँ बैठे...
ऐसे ही
ख़ूबसूरत बिम्ब उकेरते इस मुक्तक का सौन्दर्य देखिए-
सागर की लहरों
पे लगता,झिलमिल।-सा जो मेला
तारे तो बन
जाते घुँघरू,रहता चाँद अकेला
करवट लेकर
किरणें बोलीं,यूँ प्यारे सूरज को
मैं तो बड़ी
हूँ किस्मत वाली,साथ बड़ा अलबेला।
विविध विषयों
पर सुन्दर मोहक दोहे कवयित्री के मनोभावों,
उनकी विचारशीलता को प्रकट करते हैं ।नारी पर लिखे दोहे उसके
दीन-हीन स्वरुप के स्थान पर तेजस्वी भाव को प्रकट करते हैं ,
विवाह शीर्षक दोहे बेहद मधुर और सारगर्भित हैं ।
‘दीपावली’ उजियार फैलाती है
।निःसंदेह कविताएँ पीड़ा की पाषाण-शिलाओं से निकली सरस धाराएँ हैं ,जो अपनी तरलता से सहृदय पाठक के मन को भिगो देती हैं ।या
कहिए कि ऎसी दीपशिखाएँ हैं जो निराशा भरे मन को आशा के उजालों से भरने का प्रयास
करती हैं ।
आशा करती हूँ
कि भावना जी का यह काव्य-संग्रह सहृदय पाठकों के स्नेह का पात्र होगा और यश से
दैदीप्यमान भी !
ज्योत्स्ना
शर्मा
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