28 जून 2007

रिश्तों की खातिर



बहुत दुखी हूँ मैं
इन रिश्ते नातों से
जो हर बार ही दे जाते हैं-
असहनीय दुःख,
रिसती हुई पीडा,
टूटते हुए सपने,
अनवरत बहते अश्क
और मैंने---
मैंने खुद को मिटाया है
इन रिश्तों की खातिर।
पर इन्होंने सिर्फ--
कुचला है मेरी भावनाओं को,
रौंद डाला है मेरे अस्तित्व को,
छलनी कर डाला है मेरे दिल को।
लेकन ये मेरा दिल है कोई पत्थर नहीं---
अनेक भावनाओं से भरा दिल
इसमें प्यार का झरना बहता है,
सबके दुःखों से निरन्तर रोता है,
बिलखता है, सिसकता है
और उनको खुशी मिले
हरदम यही दुआ करता है।
पर उनका दिल ,दिल नही
पत्थरों का एक शहर है
जिसमें कोई भावनाएं नही
बस वो तो तटस्थ खडा है
पर्वत की तरह
उनके दामन को बहारों से भर दो
तो भी उनको कोई फर्क नहीं पडता।
मैं हर बार हार जाती हूँ इन रिश्तों से
पर,फिर भी हताश नहीं होती
फिर लग जाती हूँ इनको निभाने में
इस उम्मीद से कि कभी तो सवेरा होगा
कभी तो ये पत्थरों का शहर
भावनाओं का शहर होगा
जिसमें मेरे लिए भी
अदना सा ही सही
पर इक मकां होगा।
डॉ० भावना

12 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत गहरे भाव हैं. यही तो जीवन है-कुछ खट्टा कुछ मीठा. बहुत सुन्दरता से भाव उकेरे हैं, बहुत बधाई लें.

Hirendra Jha ने कहा…

apka har sabd hai apki jinda tasveer
dekhne walon ne har labz mei nihara hai apko.

pranaam mamsaab,is se zyada kahna be imani hogi.........

बेनामी ने कहा…

आपकी रचना पसन्द आयी.
रिश्ते नहीं रिसते ज़ख्म कहिए ढोना तो पड़ेगा ही.
नज़्म लिखिए,ग़ज़ल लिखिए व्यंग लिखिए
हाय मार डाला कमबख्तों ने अपन तो रोने धोने से काम नहीं चलाते.
हमने माना कि तू हरजाई है
तो अपना भी यही दौर सही.
तू न सही और सही
और न सही और सही.
डॉ.सुभाष भदौरिया. अहमदाबाद.28-6-7

सुनीता शानू ने कहा…

भावना जी अच्छा लगा पढ़कर पहले लगा की कवि बहुत ही हैरान-परेशान है मगर फ़िर अचानक मन को लुभाती ये पक्तियाँ बेहद पसंद आई...
पर,फिर भी हताश नहीं होती
फिर लग जाती हूँ इनको निभाने में
इस उम्मीद से कि कभी तो सवेरा होगा
कभी तो ये पत्थरों का शहर
भावनाओं का शहर होगा
जिसमें मेरे लिए भी
अदना सा ही सही
पर इक मकां होगा।


प्रेरणा दायक रचना है...बहुत-बहुत शुक्रिया...
शानू

Divine India ने कहा…

गहरी संबेदना के साथ आपमे यथार्थ मनोदशा का वर्णन किया सारे हलचल सारे प्रयास एक कहानी लगने लगे इस कविता की यह विशेषता मैंने महसूस किया…। बधाई स्वीकारे!!!

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

समीर जी भावों की गम्भीरता को समझने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Jeet jayenge hum tu agar sang hai

शुक्रिया जनाब बहुत-बहुत शुक्रिया।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

सुभाष जी बहुत-बहुत धन्यवाद।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

शानू जी आपको अपने ब्लॉग पर पहली बार देखा बहुत अच्छा लगा।
आपको रचना पंसद आई बस लेखन सार्थक हो गया। स्नेह बनाये रखियेगा।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Divine जी आज़कल यही देखा है रिश्तों के बीच वही लिखने का प्रयास किया है। आपकी टिप्पणी को पढ़कर आभास हो गया कि जो मैं लिखना चाहती थी लिखने में सफल रही। बहुत-बहुत धन्यवाद।

deo prakash choudhary ने कहा…

"कभी तो ये पत्थरों का शहर
भावनाओं का शहर होगा"
इस सपने की कद्र करता हूं...क्योंकि
उस पार है उजालों और उम्मीदों की दुनिया
अंधेरा तो सिर्फ देहरी पर है। जिस दिन हम देहरी को लांघने की कोशिश भर कर लेंगे...पत्थरों का शहर भावनाओं का शहर होगा।
धन्यवाद-
देव प्रकाश

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

शुक्रिया देव प्रकाश जी़...