28 अक्टूबर 2018

ज़रा रोशनी मैं लाऊँ

ज़रा रोशनी मैं लाऊँ : निराशा के अँधेरों में आशा की दीपशिखाएँ
-डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
जीवन की मधुर-तिक्त अनुभूतियाँ ,कल्पनाएँ , भावनाएँ जब सहृदय आह्लादकारिता अथवा रसव्यञ्जकता से परिपूर्ण शब्दार्थ-युगल के माध्यम से उतरती हैं तो, सुन्दर काव्य का सृजन होता है , भले ही वह स्फुट अलंकारादि से सुसज्जित न भी हों ।तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती पुनः क्वापि’ से आचार्य मम्मट ने काव्यत्व को विनष्ट करने वाले दोषों का निषेध और रस निष्ठ माधुर्यादि गुणों की समन्विति का विधान किया ।ध्वनि, वक्रोक्ति से ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’ एवं ‘रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यं’ इत्यादि तक और अद्यतन भी अनेक विद्वानों ने काव्य और कविता को अपनी-अपनी तरह कहा है , परन्तु उसकी रस-निष्ठता तो प्रायः सर्वत्र रही ।काव्य का ‘सत्यं,शिवं,सुन्दरं’ से समन्वित स्वरूप ही स्वीकार्य रहा ।

अब रस क्या है और उसकी निष्पत्ति कैसे होती है ,कविता और रस का क्या सम्बन्ध है इसे प्रचलित रस सिद्धांत के प्रथम आचार्य भरत मुनि के रस सूत्र -‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति’ पर आचार्य मम्मट की कारिका ‘कारणान्यथ कार्याणि ....’ इत्यादि के द्वारा बहुत अच्छी प्रकार से समझा जा सकता है ।लोक में बार-बार व्यवहार से सुन्दर स्त्री आदि के प्रति रति आदि भाव मानव- हृदय में संस्कार रूप से विद्यमान रहता है , काव्य में वही स्थायी भाव है ।उसके कारण स्त्री , चंद्रोदय आदि विभाव, उपरान्त कार्य यथा – कटाक्ष आदि अनुभाव और रति आदि स्थायी भाव को बीच-बीच में पुष्ट करने वाले भाव अर्थात् संचारी भाव कविता में प्रयुक्त होने पर सहृदय के हृदय में सोए स्थायी भाव को व्यक्त कर , अद्भुत आनंद की स्रोतस्विनी प्रवाहित करते हैं ।

इस प्रकार लोक-व्यवहार और कविता का सम्बन्ध शाश्वत है ।कवि एवं कविता के आस्वादक सहृदय के लिए लोक से जुड़ा होना अनिवार्य है ।उदात्त भाव भरा , लोक अनुरञ्जनकारी , सरस काव्य सदा समाज को प्रभावित करने में समर्थ होता है , फिर चाहे वह छंदोबद्ध हो , मुक्तछंद अथवा छंदमुक्त ।लोक वर्णना निपुण कवयित्री डॉ. भावना कुँअर के काव्य- संग्रह ‘ज़रा रोशनी मैं लाऊँ’ की कविताएँ भी जन-मन से जुड़ी ऐसी कविताएँ हैं , जो जीवन के प्रायः प्रत्येक पक्ष को स्पर्श करती चलती हैं ।अपने चारों और विद्यमान हर वेदना- संवेदना को कवयित्री ने जैसे आत्मसात कर लिया है ।तभी तो वह निष्ठुर समाज में व्याप्त संवेदनहीनता के अँधेरे को अपनी कलम के माध्यम से उजालों से भर देने, घावों पर मरहम लगाने और नफरत पर प्रेम का रंग चढ़ा देने का संकल्प लेती हैं -
छाया घना अँधेरा
ज़रा रोशनी मैं लाऊँ
ये सोचकर कलम को
मैंने उठा लिया है...
सहज, सरल रची कविताओं में मन का आवेग तीव्रता से व्यक्त हुआ , चतुर्दिक खून-खराबा , बमों के धमाके कवयित्री के हृदय को विदीर्ण करते हैं और वह व्यथित होकर इस सारी दुर्दशा को स्वयं ईश्वर के प्रति पत्र लिखकर निवेदित करती हैं -
खून-खराबा है गलियों में,
छिपे हुए हैं बम कलियों में,
है फटती धरती की छाती,
तभी तुम्हें लिक्खी है पाती...
अपने देश की पुण्य स्मृतियाँ भला किसके मन को द्रवित नहीं करतीं ।कवयित्री के हृदय में भी अपनी मातृभूमि और उसपर अपने प्राण न्योछावर करने वाले शहीद बेहद सम्मान और श्रद्धा के साथ बसे हैं ।भारत के लिए कहती है-
वतन से दूर हूँ लेकिन
अभी धड़कन वहीं बसती...
वो जो तस्वीर है मन में
निगाहों से नहीं हटती...... और ... शहीद भगत सिंह के लिए ममत्व से भरा उनका हृदय पुकार उठा-
फाँसी का फंदा कसता गया
फिर भी भगत मेरा हँसता रहा...
काश! एक नहीं मेरे होते हज़ार बेटे
तो वो भी हँसते-हँसते यूँ ही जान दे देते...... वीर शहीदों और भारत के प्रति श्रद्धा , प्रेम प्रदर्शित करती भावना जी की अन्य कविताएँ भी बेहद प्रभावी हैं ।
उम्र के किसी भी पड़ाव पर माँ की सुख भरी गोद भुलाए नहीं भूलती ।माँ’ एक शब्द मात्र नहीं , एक ऐसा अहसास है जो हर उमंग , खुशी का संवाहक है और हर दुःख का मरहम भी ।माँ को समर्पित कवयित्री की कविताएँ बेहद भावुक करने वाली हैं ।यूँ तो किस घड़ी माँ याद नहीं आती , परन्तु जन्मदिन पर दूरियाँ जैसे तड़पा देती हैं फिर चाहे वह अपना हो या माँ का ।कवयित्री कह उठती है एक सार्वभौमिक सत्य-
माँ मुझे भी प्यारी है, माँ तुम्हें भी प्यारी है...
माँ इस दुनिया में, सबसे ही न्यारी है...
माँ की खुशबू’, ‘माँ की डायरी’माँ के प्रति संतान के कर्तव्यों का स्मरण कराती , उसके साथ बिताए एक-एक पल को याद करती बेहद भाव पूर्ण , मर्मस्पर्शी कविताएँ बेहद भावपूर्ण हैं ।बूढ़े पेड़ की व्यथा के व्याज से एक मार्मिक दृश्य देखिए –
लगा रहता रोज ही
जैसे नया मेला
वक्त गुज़रा...
बूढ़ा गया अब पेड़
थका हारा-सा
और मज़बूर-सा
पर पंछियों को
जाने  क्यों ...
जरा भी पता ही न चला...
आतंकवाद आज किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं , संक्रामक रोग की तरह फैलता जा रहा यह रोग एक ऐसी विकृति है जिसने सम्पूर्ण मानवीयता को जैसे ग्रस लिया है ।किसी न किसी रूप में सर्वत्र विद्यमान है ।दूसरी बुराइयों की तरह आतंकवाद की विभीषिका पर भी कवियों ने खूब लिखा है ।भावना जी की कलम से एक मार्मिक दृश्य देखिए-
माँ कहाँ हो तुम?/ अब मैं बहुत थक गया हूँ…
पापा तुम भी नहीं आए!
.........
धुँएँ जैसी कोई चीज़ है यहाँ,/ जिससे मेरा दम घुट रहा है!
यहाँ सब लोग ज़मीन में ही सोए पड़े हैं…/कोई भी हिलता- डुलता नहीं है
........
और बाहर पटाखे चलने जैसी आवाज़ें आ रही हैं।
माँ मुझे बहुत डर लग रहा है,
आप दोनों कहाँ छिपे हैं?
.........
माँ! पापा! कुछ लोग बाहर बात कर रहें हैं…
कह रहें है आप दोनों को गोली लगी है…
.........
माँ कहो ना इन आंतकियों से,
एक गोली मुझे भी मार दें,
ताकि मैं भी आपके पास आ जाऊँ!
मुझे नहीं आता...
आपके बिना रहना!
माँ नहीं आता...
अकेले जीना...
कन्या-भ्रूण हत्या पर कवयित्री की संवेदनाएँ जगाती कविता समाज को आईना दिखाने का काम करती है-
क्यों  है मेरे हिस्से में
सिर्फ कचरे का डिब्बा ...
क्यों  नहीं माँ का आँचल
पिता का दुलार
ऐसा करते हुए...
क्यों  नहीं काँपते हाथ
क्यों  नहीं धड़कता दिल
क्यों  नहीं तड़पती आत्मा !
ऐ ! मुझे यूँ मारने वाले सुन...
तुम तो मुझसे पहले मर चुके हो

आज के रिश्तों पर अलग- अलग रचनाएँ मन को छू जाती हैं ।अनोखा रिश्ता’ एक समर्पण का तो ‘सूनी कलाई’ और ‘रिश्ते-नाते’ रिश्तों की स्वार्थपरक कटु सच्चाई का निदर्शन है –
मैं हर बार हार जाती हूँ.../ इन रिश्तों से/पर फिर भी
हताश नहीं होती/फिर लग जाती हूँ... /इनको निभाने में

कितने बाल-दिवस मनें और कितने बाल-वर्ष लेकिन नन्हे हाथों को जो समाज कलम-किताब की जगह कचरे का थैला या फिर पत्थर और बम थमाए वह सुन्दर भविष्य की चाहना भी कैसे कर सकता है ।उनके मन की बगिया से नन्ही गिलहरी , छोटी चिड़िया ,तितली, सर्कस के मनभावन चित्र मिटाकर विषबेल बोता समाज कवयित्री की लेखनी की धिक्कार का पात्र है-

नंगे बदन, नंगे पाँव/दिनभर दौड़-धूप करते/तब कहीं जाकर
आधा पेट खाना पाते/ इन्हें इस हाल में देख /मेरा मन व्याकुल हो उठता
अन्तर्मन आँसुओं से भर जाता /नहीं देख पाती मैं... /इनको इस हाल में;

नन्ही कलियों से लेकर उम्र दराज महिलाओं तक के साथ घटती बलात्कार की घटनाएँ आए दिन अखबार की सुर्खियाँ बनती हैं ।ऐसी सुर्खियाँ जिन्हें सीधे-सीधे कहना भी शर्म और घृणा की वजह हो जाता है ।कविता के माध्यम से भावना जी ने कहा है-

एक चिड़िया.../आई  फुदकती –सी
...............
सारी चंचलता, कोमलता/ नष्ट हो गई  /न जुटा पाई  साहस/उस दीर्घकाय परिंदे से/खुद को बचाने का...
तितली, चिड़िया, दीप, मछली सबके दर्द को कहती कवयित्री अपनी सृजन यात्रा में अपनी कविताओं से मानव-मन के सुख-दुःख साझा करती हैं , साथ ही रौशन करती हैं ‘आस का दीया’-

शाम की रंगीन
गुलाबी धूप...
मेरे अन्तर्मन में
जगा देती है एक
आस का दीया....
...फिर पुकारती हैं उन खुशियों को जो जीवन को मधुमय कर दें-
फुरसत से घर में आना तुम
और आके फिर ना जाना तुम।
मन तितली बनकर डोल रहा
बन फूल वहीं बस जाना तुम ।...
ऐसी ही स्वाभिमान ,आशा, उल्लास और प्रेम के उजालों से भरी कवितायें हैं –‘भावों को तुम बहने दो’ , ‘प्यार के छींटे’ , ‘नया साल’ और ‘मेरे हमसफ़र’ ,... और भी विविध भावों से अनुप्राणित क्षणिका , मुक्तक , लम्बी कविताएँ, दोहे पुस्तक की विशेषता हैं ।सहज, सरल जैसा आया वैसा कहा ।कविताओं की यही सहजता मुग्ध करती है ।एक क्षणिका देखिए –

प्यार की गहराइयों में
उतरे हम इस कदर...
हमें भनक तक न लगी
पर अस्तित्व गवाँ बैठे...

ऐसे ही ख़ूबसूरत बिम्ब उकेरते इस मुक्तक का सौन्दर्य देखिए-
सागर की लहरों पे लगता,झिलमिल।-सा जो मेला
तारे तो बन जाते घुँघरू,रहता चाँद अकेला
करवट लेकर किरणें बोलीं,यूँ  प्यारे सूरज को
मैं तो बड़ी हूँ किस्मत वाली,साथ बड़ा अलबेला।
विविध विषयों पर सुन्दर मोहक दोहे कवयित्री के मनोभावों, उनकी विचारशीलता को प्रकट करते हैं ।नारी पर लिखे दोहे उसके दीन-हीन स्वरुप के स्थान पर तेजस्वी भाव को प्रकट करते हैं , विवाह शीर्षक दोहे बेहद मधुर और सारगर्भित हैं ।दीपावली’ उजियार फैलाती है ।निःसंदेह कविताएँ पीड़ा की पाषाण-शिलाओं से निकली सरस धाराएँ हैं ,जो अपनी तरलता से सहृदय पाठक के मन को भिगो देती हैं ।या कहिए कि ऎसी दीपशिखाएँ हैं जो निराशा भरे मन को आशा के उजालों से भरने का प्रयास करती हैं ।
आशा करती हूँ कि भावना जी का यह काव्य-संग्रह सहृदय पाठकों के स्नेह का पात्र होगा और यश से दैदीप्यमान भी !
ज्योत्स्ना शर्मा

17 अगस्त 2018

कनाडा में काम्बोज जी का इन्टरव्यू हाइकु पर विस्तृत जानकारी के लिए जरूर सुने और देखें- 

https://youtu.be/1QA0I2KCG0Y


Dr.Bhawna Kunwar

15 अगस्त 2018

नफ़रत पर प्रेम का रंग


पुस्तक समीक्षा    
डा. सुरेन्द्र वर्मा
 भावना कुँअर / ज़रा रोशनी मैं लाऊँ (काव्य-संग्रह) /अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ,वर्ष : 2018; पृष्ठ:140, मूल्य: 150 रुपये
    डा. भावना कुँअर एक सकारात्मक सोच की कवयित्री है । वे देश में बढ़ती अराजकता, आतंक,
अत्याचार अंधेरगर्दी और आडम्बरों को देख कर सहज ही विचलित हो जाती हैं । रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझते हुए आम आदमी को देखकर उनके मन में उसके लिए सहानुभूति उमड़ पड़ती है । लड़की के विवाह हेतु दहेज़ के लिए पैसा जुटाते पिता को जुगाड़ करते देख वे व्यथित हो जाती हैं । रिश्तों को टूटते देखना वे गवारा नहीं कर पाती । लेकिन वे टूटती नहीं । मुकाबला करती हैं । कलम की ताकत वे अच्छी तरह समझती हैं । वे जानती हैं कि सिर्फ सकारात्मक सोच के प्रति, प्रतिबद्ध लेखनी ही उजेला और प्यार फैला सकती है –
छाया घना अन्धेरा / ज़रा रोशनी मैं लाऊँ
यह सोच कर कलम को / मैंने उठा लिया है ---
नफ़रत पे प्रेम का रंग / थोड़ा चढ़ा दिया है  
                     (ज़रा रोशनी मैं लाऊँ)
   आज की दुनिया उन्हें भाती नहीं । परेशान होकर वे अपने आराध्य को पुकारती हैं और उसे पाती लिखती हैं,  कहती हैं, ‘खून खराबा है गलियों में’, ‘उजड़ गए हैं घर और आँगन’,  फैल रही नफ़रत जन जन में’,और  ‘दुखों की बस्तियों में बस आंसू का बसेरा है’ । वे महसूस करती है –
‘’सर्दी की सुबह / धुंध ने जो उढ़ाई चादर
भूल जाती है समेटना ,  
आता है सूरज / हौले हौले कदमों से
और अपनी किरणों से / छिपा लेता है चादर
बेचैन हो उठाती है धुंध’’
                        (धुंध)
   वही है वह आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच ( ‘आता है सूरज’ ) जो डा. कुँअर की कविताओं में साफ़ झलकता है । दर्द और प्रेम, भावना जी की कविताओं के ये दो प्रमुख भाव हैं, जिन्हें बड़े यत्न से उन्होंने अपनी कविताओं में परोसा है ।
   समुद्र अपनी लहरों को बार बार बाहर फेंकता है । पर लहरें हैं  कि वे फिर भी सागर के दिल में समा जाना चाहती हैं । ऐसा आखिर क्यों होता है । ज़ाहिर है इसका एक ही जवाब है – प्रेम । कवयित्री इस प्रेम से उपजे दर्द को समझने की कोशिश करती है । वह -
बाँटना चाहती थी उन लहरों का दर्द
क्यों समुन्दर उठा कर उन्हें बाहर फेंकता है
क्यों फिर भी वे समाना चाहती हैं
सागर के दिल में –‘’
                    (दर्द के मायने)

कवयित्री खोजना चाहती है इसका जवाब । कोई उत्तर नहीं मिलता-

‘खो गए कहीं शब्द मेरे
खोजती रही पर मिले ही नहीं
दीये से पूंछा
पहाड़ हवा
और पंछियों से पूछा
पर सब मौन रहे
पर मैं निकाल लाऊँगी इन सबके भीतर से
मेरे वो प्यार भरे शब्द
जो देते हैं मुझे
मन का चैन बिना मांगे ही
और भर देते हैं मेरे सफ़ेद कागज़ को
अपने प्यार की स्याही से
और फिर रच जाती है
फिर से एक रचना”  
                (खोए थे जो शब्द)
   हर सर्जन के पीछे प्रेम होता है । कवयित्री चाहती है ‘प्यार के छींटें / बरसें सब पर / जैसे बरखा / सावन में”  (प्यार के छीटे) । किन्तु प्यार वही है जो नि:स्वार्थ हो । बनावटी प्रेम से तो,
‘घिन आने लगी है मुझे अब
हमदर्दी से लिपटे शब्दों से
उनमे बू आती है स्वार्थ की” 
            प्यार की अपनी कोई मंजिल नहीं होती । प्रेम तो अपनी मंजिल खुद ही है । भावना जी कहती हैं,
‘दोस्त तो बहुत मिले
इस ज़िंदगी में
पर जब जब वो मिले
मैंने उन्हें मंजिल समझा
पर वो पड़ाव थे”  
                     (मेरी मंजिल)
    ‘ज़रा रोशनी मैं लाऊँ की कवयित्री का जन्म भारत में हुआ ,लेकिन वह अब वर्षों से आस्ट्रेलिया (सिडनी) में रह रही हैं । पर उनकी साँसों में आज भी अपने वतन की खुश्बू ताज़ा है ।
‘वतन से दूर हूँ लेकिन / अभी धड़कन वहीं बसती
वो जो तस्वीर है मन में / निगाहों से नहीं हटती
    आज भी वतन पर ज़रा-सी आँच आती है तो सात समुन्दर पार बैठा उनका मन रो उठाता है । आतंकवाद के चलते बिलावजह बेगुनाहों को मारे जाने से उनके अन्दर एक खलबली सी मच जाती है, मन चीत्कार कर उठता है । ऐसे समय में बस उनकी अपनी कलम ही उन्हें पुकारती है और अपने आराध्य को पाती लिखने के लिए मजबूर करती है ।-
‘खून खराबा है गलियों में / छिपे हुए हैं बम कलियों में
है फटती धरती की छाती / तभी तुम्हें लिक्खी है पाती 
   कवियित्री को परदेस में मौके-बमौके अपने परिजन खूब याद आते हैं । उनसे बिछड़ने का दर्द उभर आता है और बहुत सालता है । माँ की याद, माँ की खुश्बू, माँ की निकटता, दुःख के दिनों में उनके पास न हो पाना- ये सभी स्थितियां कवियित्री को कचोटती हैं । ‘माँ की डायरी’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें ये सारी सम्वेदनाएं बहुत ही काव्यात्मक रूप से मुखर हुई हैं ।
   परदेसी संस्कृति के बीच बैठे कितना दुरूह हो गया है नाते-रिश्तों को निभा पाना । कवियित्री कहती है ‘बहुत दुखी हूं मैं / इन रिश्ते नातों से / जो हर बार ही दे जाते हैं / असहनीय दुःख” । लेकिन वह निराश नहीं होती । कभी तो यह पत्थरों का शहर भावनाओं का शहर होगा, इस सकारात्मक सोच के साथ
फिर लग जाती हूँ
इनको निभाने में
इस उम्मीद क साथ 
कि कभी तो सवेरा होगा
               (रिश्ते-नाते)
    चहरे पर पडी सिलबटें, जवान की हो या वृदध की, किसी को भी परेशान कर सकती हैं । एक बुज़ुर्ग का वक्तव्य कभी पढ़ा था कि मेरे चहरे की झुर्रियां सिर्फ यह बताती हैं कि मैं कितनी बार हंसा हूँ । कुछ इसी अंदाज़ में डा. भावना कुंवर भी तो कहती हैं –
‘चहरे पर पडी सिलबटें
आज पूछ ही बैठीं
उनसे दोस्ती का सबब
मैं कैसे कह दूँ कि
तुम मेरे प्यार की निशानियाँ हो    
                (सिलबटें)
    भावना जी एक से बढ़कर एक काव्यात्मक छबियाँ उकेरने में दक्ष है । सुनहरे और मन चाहे दिन भी यादों में ही रह जाते हैं । लेकिन इन यादों की भी तो अपनी कितनी सुगंध होती है –
‘सुनहरे सुनहरे वो प्यारे प्यारे दिन
जाने कौन ले गया लम्हां-लम्हां गिन
इतर की खाली बोतल से रह गए
थोड़े महकते थोड़े खुशबू से भरे दिन
                  (खुशबू से भरे दिन)
   बेशक एक चिड़िया की तरह ही मनुष्य भी उड़ना चाहता है । लेकिन उड़ने की अपनी उतावली में वह न तो अपने आगे बढनें में आये अवरोधों को देख पाता है और न हीं उन खतरों को जान पाता है जिनसे उसे खुद को बचा के रखना है –
‘अपनी उड़ान की तीव्रता में / नहीं देख पाई वो
खिड़की पर लगे शीशे को ---
लुप्त हो गई उड़ान / दूर कहीं अंतरिक्ष में
हमेशा के लिए     (ऊँची उड़ान)
एक चिड़िया -- / अपने सपनों की दुनिया में
खोई सी / अचानक उडी /
बचना चाहा / पर गिर पडी / न जुटा पाई साहस
उस दीर्घकाय परिंदे से / खुद को बचाने का     (अनभिज्ञ चिड़िया)
   डा. भावना कुँअर की कवितायेँ प्राय: छोटी छोटी ही होती हैं, लेकिन उनके इस संग्रह में कुछ कविताएँ इतनी लघुकाय हैं कि उन्हें बड़े इत्मीनान से ‘क्षणिकाएं कहा जा सकता है । ‘शिकन’,’सिलबट’, समेटते हैं अब’, ’तस्वीर’,चाहत’, ‘प्यार’, ‘दर्द’, ‘तोहफा’, ‘प्यार के छींटे’  इत्यादि, कुछ ऐसी ही कविताएँ हैं । इनमे से एकाध कविता मैं पहले ही उद्धृत कर चुका हूँ । दो-एक सुन्दर क्षणिकाओं को उद्धृत करने का लोभ मैं सवरण नहीं कर पा रहा हूँ –
प्यार की गहराइयों में
उतरे हम इस कदर
हमें भनक तक न लगी
पर अस्तित्व गवाँ बैठे   
              (प्यार)
समन्दर में उठे तूफ़ान-सी
कभी उमड़ती थी तेरी याद
आज तूफ़ान से पहले की
खामोशी-सी क्यों छाई ?  
              (चाहत)
   डा, भावना  कुँअर ऐसा ही और इससे भी सुन्दर लिखती रहें, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ।
-0-
डा. सुरेन्द्र वर्मा। (मो। 9621222778) , 10, एच आई जी / 1, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद-211001
 
 
 

16 जुलाई 2018

चोका/नया सवार





मझदार में
एक नाव थी फँसी
सवार आया
देख वो घबराया
नाव को लेके
था किनारे लगाया ।
बना गहरा
मधुर,विलक्षण
प्यारा सा रिश्ता ।
कितने सफ़र थे
संग में किए
वो सपने सारे ही
साकार हुए ।
काँटों की राह चले
पीछे ना हटे ।
छूट गए सारे ही
सगे संबंधी ।
मासूम वो सवार
बड़ा नादान
छल-कपट भरी,
बेदर्द इस
दुनिया से अन्ज़ान ।
बाज़ सा आया
इक नया सवार
उसे कहाँ था
भला इसका ज्ञान।
ले गया नाव
वो दूर देश कहीं
दोनों हैं खुश
तिल-तिल मरता
आँसू है पीता
पर चुप रहता
कभी झील को
मझदार को कभी
यूँ अपलक
निहरता रहता
वो पुराना सवार।


Dr.Bhawna Kunwar