मॉ का दर्द
एक रात मैं सो नहीं पाई;
सपनों में भी खो नहीं पाई।
उठकर रात में ही चल पडी;
थी बडी कूर बेरहम घडी।
चलते हुए कदम लडखडा रहे थे;
मन में भी बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे।
कुछ कदम चलने पर देखा
मेरा प्यारा देश जंजीरों में जकडा।
कैसे इसे छुडाऊँ?
कौन सी तरकीब लगाऊं?
तभी मेरे बेटे ने भाँप लिया मेरा दर्द
और बोला मत हो उदास
मैं कराऊँगा जरूर आजाद।
नई नई योजनाएँ बनाईं;
बहुत तरकीबें लगाईं।
लडा सच्चाई की लडाई;
जरा भी थकन न पाई।
फाँसी पर गया लटकाया;
पर जरा भी न घबराया।
फाँसी का फँदा कसता गया;
फिर भी भगत मेरा हँसता रहा।
काश एक नहीं मेरे होते हजार बेटे।
तो वो भी हँसते हँसते यूँ ही जान दे देते।
© डॉ० भावना कुँअर
युगांडा
9 टिप्पणियां:
अच्छे भाव हैं, आपकी रचना याद दिलाती है आजादी की कीमत।
-डा० मिश्र
Bhawna ji,
Aapki kavita main bahut marm ha or poora episod ko bahut accha sa chitrankit kiya ha aapna. Aaj Swatantrata Diwas ki poorv sandhya par aapki ya bhant bahut hi anmol ha ham sab ka liya.
Prageet
Mishra ji and Prageet ji
aapki taareef ke liye bahut bahut shukriya. Bahut acha laga aap logon ka sahayog.
Dr.Bhawna
बहुत प्यारी कवीता है - शेर करने के लिए आपका धन्यवाद
वन्देमातरम्
वन्देमातरम्
स्वतंत्रता दिवस पर आपको भी बहुत बहुत शुभकामनायें एवं बधाई.
-समीर लाल
सुन्दर कविता। जय-हिंद!
काश ये भावना सब समझ पाते,
मां भारती की टीस जान पाते,
फ़िर भी गर्व है उन जाबाज़ों पर
हुए हस कर जो निछावर....!
भावना जी आपकी कविता बेशक बहुत सुंदर भाव लिए है, बधाई!
नाम भावना है भावों से बनी हूँ।
समझे जो मेरे भाव तो मैं तो धनी हूँ।
शुकिया रेणुजी आपका बारम्बार।
साहिति्यक चमन में फिर से आई बहार।
क्या बात है रेणुका जी'आपका तारीफ करने का अन्दाज हमें बहुत पसन्द आया
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