दुःखों की बस्तियों में तो, बस आँसू का बसेरा है
जिधर भी देखती हूँ मैं, मिला डूबा अँधेरा है।
वो देखो जी रहें हैं यूँ, न रोटी है न कपडा है
उन्हें मायूसियों के फिर, घने जंगल ने घेरा है।
नहीं रुख्सत हुई बेटी, न कंगन है न जोडा है
ये आँखे राह तकती हैं, विरासत में अँधेरा है।
नजर आती नहीं कोई, किरण उम्मीद की उनको
मगर सेठों के घर में तो, सवेरा ही सवेरा है।
मिले कोई तो अब उनको, जो समझे हाले दिल उनका
न छेडो ये तराना तुम, ये मेरा है ये मेरा है।
जिधर भी देखती हूँ मैं, मिला डूबा अँधेरा है।
वो देखो जी रहें हैं यूँ, न रोटी है न कपडा है
उन्हें मायूसियों के फिर, घने जंगल ने घेरा है।
नहीं रुख्सत हुई बेटी, न कंगन है न जोडा है
ये आँखे राह तकती हैं, विरासत में अँधेरा है।
नजर आती नहीं कोई, किरण उम्मीद की उनको
मगर सेठों के घर में तो, सवेरा ही सवेरा है।
मिले कोई तो अब उनको, जो समझे हाले दिल उनका
न छेडो ये तराना तुम, ये मेरा है ये मेरा है।
डॉ० भावना
9 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना है, भावना जी,
आप से प्रेरित हो कर, इसी थीम पर :-
कैसा मासूम बचपन
लिए भटकन ही भटकन,
न खेल ना हंसी,
बस ज़िदगी कमाई में फंसी,
जिस दिन दो पैसे बन जाए
ये न्न्हें व्यस्क मुस्काएं
जैसे मिल गया हो खिलौना कोई,
महज़, कमाई की सौगात ज़िन्द्गी..
-रेणू आहूजा.
Renu ji
Bahut Bahut shukriya
Dr.Bhawna
bhawnaji
namaskar
bahut sundar bahut hi sundar likhti hain aap
badhai
kusum
नहीं जिन बस्तियों में स्वार्थ की जलती शमायें हैं
उन्हीं में चांदनी का हर घड़ी रहता बसेरा है.
I have read ur poems and i like it very much. Please continue write poems .
Have a nice day
This is narendra from india
Narendra ji
Thanks
Dr.Bhawna
भावना जी, नमस्कार.
अभी तक आपकी रचनाएं ईकविता पर ही पढी थीं.आपके जालघर के बारे में जानकारी मिली. आपके जालघर पर आपकी रचनाओं को पढकर अच्छा लगा.विदेश में रहकर आपका हिन्दी में निरंतर लेखन देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई.
सादर,
दुर्गेश गुप्त "राज"
राकेश जी, दुर्गेश जी बहुत-बहुत शुक्रिया अपना स्नेह यूँ ही बनाये रखियेगा।
भावना जी सादर नमस्कार, क्या खूब लिखती है आप , विदेश में रह कर भी , हिंदी के प्रति इतना स्नेह ,,,, एक छोटी भेट मेरी तरफ से भी
देखो बो भारत का भाग्य खेलता है
कंधो पर है भारी बोझा
धूसित तन मिटटी के रंग का,
गायो के संग खुद चरता जाता ,
ता ता थैया करता जाता
पाबो मैं काँटों की किले चुभती।
सूरज तपता समता खोकर के,,
अपनी मस्ती में मस्ती लेताबढ़ता जाता, बढ़ता जाता
लेता न कही बिश्राम पथिक बो,,,
मानो सब पूरित करने की ठानी हो,,
आँखों से आंसू निर्झर बहते,,
पेटो की पसली चमक रही है ,,,,
मानो सागर खुद मोती उड्लाता,
इस कल के भारत के ऊपर,,
करना चाहता सर्वस्व निछाबर,,
इस मीठे बालक के ऊपर,,
खाने को क्या मिलती रोटी,,
ये मैदानों का बिस्तर सादा,,,
क्या सच में भारत का भाग्य यही है,,,
नहीं नहीं दुर्भाग्य यही है,,,
नित नित उसका खोता जायेगा
फिर एक एक बालक सोता जायेगा
कुछ शेष नहीं अबशेष रहेगा...
इस मौन कुटीर मैं धाम बनेगा....
उस बालक की छाती के ऊपर
राष्ट्र गान का बोल बोलता है,,,,,
देखो बो भारत का भाग्य खेलता है,,,
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