28 अगस्त 2007

सूनी कलाई…


एक दिन था..

मैं!

अपनी सूनी कलाई को

निरखता हुआ

तुम्हारी राह देख रहा था,

मगर तुम नहीं आईं,

सुबह का सूरज

अपनी शक्ल बदलकर

चाँद के रूप में आ खड़ा हुआ

मगर तुम फिर भी नहीं आईं,

अब तो उम्मीद ने

भी साथ छोड़ दिया था,

कैसे बीता था वो दिन

आज तक भी नहीं भुला पाया।

लेकिन आज और कल में

कितना बड़ा फर्क है

आज़ वही तुम

मेरे लिये आँसू बहा रही हो,

सिसकियाँ भर रही हो,

कहाँ थी तुम जब मैं

दर-ब-दर की ठोकरें खा रहा था

अपने जख्मी दिल को लिये

इक अदद

सहारा ढूँढ रहा था

मैं अकेला

चलता रहा काँटों पर

अपने खून से लथपथ

कदमों को घसीटता हुआ

पर किसी ने नहीं देखा मेरी ओर

तुमने भी नहीं

तुम ने भी तो सबकी तरह

अपनी आँखे बन्द कर लीं

आज़ कैसे खुली तुम्हारी आँखे?

आज़ क्यों आये इन आँखों में आँसू?

क्या ये आँसू पश्चाताप के हैं?

या फिर मेरी पद, प्रतिष्ठा देखकर

फिर से तुम्हारा मन

मेरी सूनी कलाई पर

राखी का धागा

बाँधने का कर आया?

क्या यही होतें हैं रिश्ते?

उलझ रहा हूँ

बस इन्हीं सवालों में

यहाँ अपने वतन से दूर होकर

जिनका जवाब भी मेरे पास नहीं है

अगर है तो आज़ भी वही सूनी कलाई



डॉ० भावना

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत मार्मिक.

तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.

बसंत आर्य ने कहा…

कविता में इतनी कटुता ठीक नहीं लगती

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

बसन्त जी आपने रचना पढ़ी बहुत आभारी हूँ...

अब बात आती है कटुता की तो क्या ये कटुता
कटुता है या मार्मिकता ? अगर ये कटुता है तो कटुता क्या सिर्फ कहानियों की ही जागीर होती है ?आपको हँसना हँसाना अच्छा लगता है अच्छी बात है, पर जीवन का दूसरा भी पहलू होता जिसको हम दुख या मायूसी, उदासी के नाम से जानते हैं तो क्या दूसरे पहलू पर लिखना गलत है अगर हाँ तो आपने ये क्या लिखा है?

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

समीर जी बहुत-बहुत बधाई , पर हमारा केक कहाँ है?