आज फिर
हो गई मैं अकेली
कोयल भी नहीं आई
रोज सुबह जगाती थी मुझे
अपनी मधुर, कोमल आवाज से...
जाने कहाँ गई...
रात बहुत तेज तूफान आया था
कहीं...
नहीं-नहीं मैं ऐसा कैसे सोच सकती हूँ
देखा था कल मैंने
कैसे सँभाले थी अपने बच्चों को...
पर ये क्या
पेड़ की डाली कहाँ गई
जहाँ रहता था उसका
छोटा सा परिवार...
क्या वक्त इतना निर्दयी हो सकता है?
क्या हुआ होगा उसके बच्चों का?
क्या दोष था उसका?
घण्टों हम बातें करते...
वो अपनी सुरीली बोली से
मेरा मन का सारा दर्द समेट लेती
मेरे अकेलेपन को भर देती
और मैं भी घण्टों उसके बच्चों को निहारा करती
उनके क्रिया-कलाप आँखों में भरा करती...
पर क्या हुआ होगा?
क्या वो तूफान के डर से
कहीं दूर चली गई होगी...
या फिर...
नहीं-नहीं मैं ऐसा नहीं सोच सकती
क्या मैं दोषी हूँ?
या कि मेरी छाया ही बुरी है?
क्या मुझे खुशियाँ देने वाला
हर बार ही
कर दिया जाएगा
मुझसे दूर...
क्या छाया भी अच्छी-बुरी होती है?
अगर नहीं
तो क्यों कहा जाता है
उसके कदम पड़े
तो घर फला-फूला...
उसके पड़े तो सब डूब गया...
क्या सच्ची होती हैं ये मान्यताएँ?
अगर नहीं
तो क्यों नहीं तोड़ पाते हम
ऐसी मान्यताओं को...
जो सिवाय दुख-दर्द के
कुछ नहीं देतीं...
बस छोड़ जाती हैं ऐसे घाव
जो कभी नहीं भरते कभी भी नहीं...
Bhawna
6 टिप्पणियां:
दिल को छू हर एक पंक्ति....
बहुत भावपूर्ण कविता , दिल को छू गई ।
गहरे भाव!! उम्दा रचना...
तो क्यों नहीं तोड़ पाते हम
ऐसी मान्यताओं को...
जो सिवाय दुख-दर्द के
कुछ नहीं देतीं...
बस छोड़ जाती हैं ऐसे घाव
जो कभी नहीं भरते कभी भी नहीं...कविता का सार और सभी से प्रश्न।गहरी सोच से उठते हैं प्रश्न और गहरे प्रभाव डालते हैं।
तो क्यों नहीं तोड़ पाते हम
ऐसी मान्यताओं को...
जो सिवाय दुख-दर्द के
कुछ नहीं देतीं...
बस छोड़ जाती हैं ऐसे घाव
जो कभी नहीं भरते कभी भी नहीं...कविता का सार और सभी से प्रश्न।गहरी सोच से उठते हैं प्रश्न और गहरे प्रभाव डालते हैं।
आप सभी की दिल से आभारी हूँ जो आप लोगों ने अपना बहुमूल्य समय दिया और रचना को पसंद किया।सदा आप लोगों का स्नेह बना रहेगा यही आशा है।बहुत-बहुत आभार एक बार फिर से...
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