हर पल मेरी आँखों में
रह-रहकर आता है
जिसे किया गया मज़बूर
मुझे भुलाने के लिये
पर क्या मैं
भुला पाया वो चेहरा!
नहीं कभी नहीं
उसी चेहरे ने दिया था मुझे
मेरी माँ जैसा प्यार.
जब मैं भटका करता था
सड़कों पर
भूख और प्यास से बेहाल
सोया करता था फुटपाथ पर,
फिर वही ले गयीं मुझे
अपने घर, अपना बेटा बनाकार
पर वक्त की मार देखो
मुझे उस माँ को ही छोड़ने पर
मज़बूर कर दिया
उनके अपने ही बेटों ने
क्यों ?
क्योंकि मैं उनका सगा भाई नहीं था
था तो बस एक फुटपाथी,
मैं चला आया
उस माँ के आँचल से दूर
किन्तु आज़ तक नहीं भूला
उस माँ का प्यार
उसकी रोती तड़फती आँखें मेरे लिये,
मैं जीये जा रहा था
उन यादों के सहारे
किन्तु आज़ जिन्दा रहने की चाह
अचानक मर गयी
क्योंकि
आज़ देखा है मैंने
एक ऐसा मंजर जिसे देखने के बाद
नहीं जीना चाहता और अब
देखा है मैंने आज़
अपनी माँ को
यहीं फुटपाथ पर
चिथड़ों में लिपटे हुये
उलझे बिखरे बाल
पैरों में फटी बिवाईयाँ
चेहरों पर दर्द की परछांईयाँ
मात्र एक हड्डियों का ढ़ाँचा
नहीं देख पा रहा…
अपनी मुँह बोली माँ का ये हस्र
ये क्या हुआ? ये कैसे हुआ?
किसने किया ये हाल मेरी माँ का?
शायद उन्हीं बेटों ने
जिन्होंने एक दिन
मुझे घर से निकाल फेंका था,
उन्होंने अपनी माँ को भी नहीं बख्शा
जो न समझ पाये
माँ की भावनाओं को
तो फिर क्या समझेंगे
उसकी ममता को
क्या यही होते हैं अपने
क्या इन्हें ही
दी जाती है परिभाषा
‘अपने खून की”
तो अच्छा है
मैं उनका खून नहीं हूँ
मेरी माँ के इस हाल ने
झकझोर ड़ाला है
मेरा अस्तित्व,
एक साथ हज़ारों सर्प
मेरे शरीर में
बिलबिलाने लगे,
मेरा मस्तिष्क
शून्य हो गया
और मैं
जा गिरा
अपनी माँ के चरणों में
बनकर एक बुत…
डॉ॰ भावना