31 दिसंबर 2008

सभी मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक बधाई!!



काँपते हाथ
पलटे कलैंडर
नये साल का।

मासूम आँखे
खोज़ती माता-पिता
सूने घर में।

सीढियाँ चढे़
सँभलकर सभी
नये वर्ष में।

उलझे रास्ते
जल्द ही सुलझेंगे
नव वर्ष में।

मोड़ भी बस
मुड़ते रहें सदा
मंजिल से दूर।

मंगलमय
सभी को नव वर्ष
दिल से दुआ।

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18 दिसंबर 2008

अनकही दास्ताँ...

आप सभी मित्रों के सहयोग और स्नेह के कारण आज़ मैं भी कर पूरी कर पाई सैंचुरी और कोई समय होता तो आप सबको केक खिलाया जाता पहले की तरह लेकिन कोई बात नहीं उधार रहा जैसे ही मूड़ अच्छा होगा आप सबको केक खिलाया जायेगा...


आज़कल कुछ अनजान सायों के बीच घिरी रहती हूँ मैं, चाहे रात का समय हो, या फिर दिन का, जिंदगी मानों थम सी गयी हो लाख चाहने के बावजूद भी खुद को सामान्य नहीं कर पाती हूँ। आज़कल बच्चों की छुट्टियाँ चल रहीं हैं, वो भी मेरा चेहरा देखकर रोज़ ही एक सवाल करते हैं-“ मम्मा आप इतना उदास और खोये-२ क्यों रहते हो ? ना ही हमारे साथ खेलते हो ना ही कहीं घूमने जाते हो, ना ही ठीक से बात करते हो हमारी तो सारी छुट्टियाँ आपके इसी मूड़ के साथ बीती जा रही हैं।“
मूड़ जी हाँ ये मूड़ भी अजीब चीज है कभी-२ कितना भी समझाओ खुद को, कि हमें दुखों से नहीं घबराना है, हिम्मत रखना है, संभालना है खुद को, पर हम हार जाते हैं,अब चाहे वह दुख मुम्बई में हुए हादसे से संबन्धित ही क्यों ना हो।

आँखों के आगे कभी शहीदों के परिवार वालों के चेहरे, कभी अपनों के बिछड़ने से रोते-बिलखते परिवार, कभी मोशे जैसे अनेक बच्चों की सिसकियाँ कानों में गूँजती रहती हैं। बस घर के अंदर बैठे-बैठे यही सब सोचते-२ तबियत भी जरा नासाज़ रहने लगी डॉ० ने कहा कि मुझे घूमना चाहिये, बस अब घर में सबकी डाँट शुरु –“चलो घूमने” अब बच्चों के प्यार और पतिदेव के प्रेमपूर्ण आग्रह के आगे भला कैसे इंकार कर पाते तो शुरू हुआ सिलसिला घूमने का कभी बाहर और कभी छत पर।

अभी कुछ हफ्तों से छत पर ही जा रहे थे क्योंकि जरा बाहर का माहौल इन दिनों यहाँ खराब सा हो जाता है, आप भी सोच रहे होंगे कि क्रिसमस और नया साल आने वाला है तो अच्छा होना चाहिये तो बुरा क्यों, जी हाँ यही तो कारण है बुरा होने का अब जिन लोगों को क्रिसमस मनाना है ,तो उनको पैसा तो चाहिये ही, पर मेहनत करना कुछ लोगों को पंसद नहीं आता तो हाथ साफ करते हैं,कभी सोने की चेन पर तो कभी मोबाईल पर हमारे कई मित्र इन अक्लमंदों के हत्थे चढ़ चुके हैं।

छत पर घूमते हुए निगाह पड़ी एक पंछी के जोड़े पर, बेहद उदास, ना ही कोई आवाज़, ना ही कोई हलचल एक दम पत्थर से बने एकटक एकदूसरे को निहारते हुए ना जाने कौन सी दुनिया में खोए हुए यूँ ही घंटों बैठे रहे। मैं जो अपनी उदासी दूर करने के लिए छत पर घूमने आई लेकिन उनकी उदासी देखकर फिर सोचने पर मज़बूर हो गई किस दुख के मारे होंगे ये बेचारे ? क्या इनके बच्चे इनसे बिछड़ गये? क्या किसी शिकारी की गोली का शिकार हो गए या फिर किसी ज्यादा ताकतवर पंछी ने इनके बच्चों को मार डाला, क्या कई दिन पहले आये तूफान ने इनका घर निगल लिया, क्या ये परदेसी हैं और अपनों की याद इनके अंतर्मन को झुलसा रही है, मैं कुछ भी नहीं समझ पाती और आकर बिस्तर पर लेट जाती हूँ, अब आँखों में नींद कहाँ बस वही पंछी का जोड़ा दिलो-दिमाग पर छाया रहता और बेसब्री से शाम होने का इंतज़ार।

अगले दिन फिर उस जोड़े को ठीक उसी समय, उसी मुद्रा में घंटों बैठे पाया एक अज़ीब सा लगाव हो गया मुझे जो बरबस ही मेरे कदम शाम होते ही छत की ओर बढ़ने लगते ये सिलसिला एक हफ्ते तक चलता रहा, तीन दिन पहले मैं जब छत पर गई तो उस जोड़े को वहाँ ना पाकर बहुत उदास मन से नीचे आ गई। अगले दिन फिर जाकर देखा वह जगह, वह मुंड़ेर सब वहीं था पर वह जोड़ा नहीं था ना जाने कहाँ गया होगा क्या अपने देश? या कि उसके बच्चे उसे मिल गये होंगे अगर ऐसा हुआ होगा तो बहुत अच्छा हुआ क्या कोई भी अपने घर परिवार से दूर रहकर सुखी हुआ है भला…

आज़ कुछ पड़ोसी मेरे पास आये और बोले कि वो हमारा नल देखना चाहते हैं हमने इज़ाज़त दे दी वो बिना कुछ कहे चले गये हमें तो समझ ही नहीं आया कि माज़रा क्या है थोड़ी देर बाद देखते हैं तो नीली वर्दी पहने कई सफ़ाई कर्मचारी धड़ाधड़ छत पर जा रहें हैं, हम बडे खुश हुए चलो इस बार नये साल पर बिना हमारे कहे छत तो साफ होगी, करीब दो घंटे बाद हम देखते हैं कि सभी मुँह पर मास्क पहने और ना जाने क्या-क्या बड़बड़ाते जा रहे थे, दिन भर सभी लोगों का आना जाना लगा रहा, जब पाँच घंटे बीत गए तो मुझसे भी सब्र नहीं हुआ मैं भी चली अपनी साफ सुथरी, सपनों की छत देखने, जब वहाँ पहुँची तो बदबू के मारे दिमाग घूम गया, समझ नहीं आया कि इतनी बदबू किस चीज़ की हो सकती है, तभी जो नज़ारा देखा उसे देखकर मेरे तो होश ही उड़ गए, दिमाग सुन्न हो गया और बरबस ही आँखों से आँसू बरस पड़े मेरी आँखों के सामने वो पंछी का जोड़ा था, जिसे पानी के बहुत बड़े टैंक से निकाला जा रहा था और उस जोड़े के शरीर में कीड़े चल रहे थे, अब मुझे सारी बात समझ आई …कि क्यों लोग हमारा नल चैक करने आये थे ? वो ये देखना चाहते थे कि क्या हमारे पानी में भी बदबू आ रही है? हुआ यूँ कि हमारे यहाँ बड़े-२ आठ टैंक हैं जिसमें से दो टैंक के ढक्कन शायद स्मैकियों ने निकलकार बेच डाले थे, जिनका हमें पता भी नहीं था, उनमें से ही एक टैंक में वो पंछी को जोड़ा मिला जिसके कारण कुछ घरों में पानी में बदबू की शिकायत थी, सभी लोग कह रहे थे-“ कि वे सभी दो दिन से उस पानी को इस्तेमाल नहीं कर रहे थे और मैं बहुत लक्की हूँ जो मेरी घर में वो पानी नहीं आ रहा था जिसमें बदबू आ रही थी, मेरा घर उस बदबू से अछूता था” लेकिन उन सभी लोगों में से ये कोई नहीं जानता कि मुझे वो बदबू नहीं मुझे छू गईं वो आँखे जो मरने के बाद भी किसी के इंतज़ार में खुली हुईं थी, मुझे छू गईं उनके प्यार की अनकही दास्ताँ...
Dr.Bhawna

6 दिसंबर 2008

मासूम पुकार...

मुम्बई में मची तबाही दिलो दिमाग से निकलने का नाम नहीं लेती तो क्या हुआ अगर परदेश में बैठे हैं हमारी आत्मा तो अपने देश की मिट्टी में बसी है नहीं सहा जाता इतना दुःख, आत्मा पर इतना बोझ की ना कुछ कहते बनता ना ही चुप रहते बनता। आज़ इतने दिन हो गये पर टी०वी० के न्यूज़ चैनल से आँखे ही नहीं हटती, ना ही थमता इन आँखों से आँसुओं का सैलाब जब भी देखती उन बच्चों को रोते बिलखते हुए, जिनका सब कुछ छीन लिया इस तूफान ने, उन बच्चों की पीड़ा को मैंने बहुत करीब से महसूस किया है उन बच्चों में मोशे और अन्य बच्चे भी हैं जिनकी दुनिया ही बदल गई । मैंने बच्चों के मन को कुछ ऐसे महसूस किया ...
माँ! कहाँ हो तुम?
कहीं भी दिखती क्यूँ नहीं?
माँ मेरी आँखों में,
दर्द होने लगा है…
तुम्हारी राह निहारते-निहारते
पर तुम नहीं आती!
माँ मुझे नींद आ रही है,
पर तुम तो जानती हो ना…
तुम्हारी गोद के बिना…
मैं सो नहीं पाता।
माँ मुझे भूख भी लगी है,
पर मुझे तुम्हारे ही हाथ से…
खाना पंसद है ना!
अब मैं बहुत थक गया हूँ…
पापा तुम भी नहीं आये!
तुम जानते हो ना पापा…
मैं तो बस तुम्हारे साथ ही घूमने जाता हूँ।
तुम्हारे बिना मुझे कहीं भी जाना अच्छा नहीं लगता!
फिर भी तुम क्यूँ नहीं आते?
पापा मुझे कोई खिलौना नहीं चाहिये!
ना ही टॉफी, ना चॉकलेट…
चाहिए तो बस आप दोनों का साथ।
आप दोनों कहाँ छिप गये?
आपको पता है ना मुझे अँधेरे से बहुत डर लगता है!
यहाँ चारों तरफ बहुत अँधेरा है…
यहाँ बहुत डरावनी डरावनी आवाजें आ रही हैं…
धुँए जैसी कोई चीज़ है यहाँ,
जिससे मेरा दम घुट रहा है!
यहाँ सब लोग जमीन में ही सोए पड़े हैं …
कोई भी हिलता डुलता नहीं है…
ना ही कोई किसी को आवाज़ ही देता,
माँ ना जाने यहाँ इतनी खामोशी क्यूँ है!
इक अज़ीब सा सन्नाटा…
मेरे चारों ओर पसरा पड़ा है,
और बाहर पटाखे चलने जैसी आवाजे आ रही हैं।
माँ मुझे बहुत डर लग रहा है,
आप दोनों कहाँ छिपे हैं?
प्लीज़ बाहर आ जाईये!
मैं तो अभी बहुत छोटा हूँ…
आप लोगों को ढूँढ भी नहीं सकता!
माँ! पापा! कुछ लोग बाहर बात कर रहें हैं…
कह रहें है आप दोनों को गोली लगी है…
आंतकियों की गोली…
माँ ये आंतकी क्या होते हैं?
पापा ये गोली क्या होती है?
क्या गोली लगने से…
दूर चले जाते हैं?
माँ कहो ना इन आंतकियों से,
एक गोली मुझे भी मार दें,
ताकि मैं भी आपके पास आ जाऊँ!
मुझे नहीं आता आपके बिना रहना!
माँ नहीं आता…
डॉ० भावना

29 नवंबर 2008

शहीदों को शत-शत नमन...

कफन में लिपटे…
अपने बेटे को देख !
माँ का कलेज़ा फट पड़ा !
आँसू आँख से नहीं
दिल से बहे थे…
ऊँगलियाँ थी कि…
उसके चेहरे से
नहीं हटती…
मुँह से बस यही
आवाज़ निकली !
वाह मेरे लाल !
मुझे नाज़ है तुझ पर
बचा लिया तूने कितनी ही…
माँ की गोद को उज़ड़ने से…
बचा लिया तूने कितनी ही…
पत्नियों के मांग का सिंदूर…
किसी पिता का दुलार !
किसी घर का अकेला चिराग !
जो नहीं बच सके उनके लिये …
रोता है मेरा दिल…
मेरे लाल !
तू फिर आना…
अगले जन्म में भी तू
मेरी ही कोख से जन्म लेना…
फक्र है मुझे तुझ पे !
Dr.Bhawna

27 नवंबर 2008

क्या आप इन्हें पहचानते हैं?

चित्र - साभार - NDTV 24x7


यही हैं वो दरिंदे जो बोट पर सवार होकर आये और मासूम लोगों का खून बहाने में जरा भी नहीं हिचके। ये दिल दहला देने वाले मंजर जो आँखों में बस गये हैं क्या कसूर था उन मासूमों का जिनका खून बहाया गया?

Dr. Bhawna

26 नवंबर 2008

सिलसिला…

आज़ सुबह जैसे ही टी०वी० खोला सबसे पहली खबर सुनने में आई एक नवजात बच्ची को मुम्बई के माँ बाप ने डस्टबिन में डाल दिया ये सुनते ही दिल दहल गया भावनाएँ उमड़ पड़ी उस बच्ची के लिए ….पिछले हफ्ते दिल्ली की भी ऐसी एक खबर पढ़ने में आई थी जिन्होंने अपनी बच्ची को फुटपाथ पर छोड़ दिया था ना जाने कब रुकेगा ये सिलसिला…


क्यूँ है मेरे हिस्से में
सिर्फ कचरे का डिब्बा !
क्यूँ नहीं माँ का आँचल !
पिता का दुलार !
ऐसा करते हुए
क्यूँ नहीं काँपते हाथ !
क्यूँ नहीं धड़कता दिल !
क्यूँ नहीं तड़पती आत्मा !
ऐ ! मुझे यूँ मारने वाले सुनो !
तुम तो मुझसे पहले मर चुके हो
तुम भला मुझे क्या मारोगे
भावनाओं से शू्न्य
तुम्हारा दिल बन चुका है
माँस का लोथड़ा
जिसे खायेगी
तुम्हारा दिल अब बन चुका है
माँस का लोथड़ा
जिसे खायेगी
तुम्हारी ही आत्मा
नोंच-नोंचकर
अभी जरा वक्त है…
एक दिन आयेगा
जब तुम्हें देना होगा
इस गुनाह का हिसाब
मेरा क्या !
मुझे तो मिल गई मुक्ति
तुम्हारे जैसे इन्सानों की दुनिया से
डॉ० भावना कुँअर

18 नवंबर 2008

नहीं उसके सिवा तेरा कोई, ये याद कर ले...

लीजिये आप सबके स्नेह के कारण अम्माजी की लिखी एक ओर ग़ज़ल...
नहीं उसके सिवा तेरा कोई, ये याद कर ले
खुदा की याद से तू अपना दिल आबाद कर ले।

न उसको याद रखना, करना है बर्बाद खुद को
कहीं ऐसा न हो तू खुद को यूँ बर्बाद कर ले।

अगर फ़रियाद सच्चे दिल की हो, सुनता है मालिक
तू सच्चे दिल से उससे, चाहे जो फ़रियाद कर ले।

जो उससे बँध गया, हर ओर से आज़ाद है वो
तू अपने आपको हर ओर से आज़ाद कर ले।

कोई तो काम इस दुनिया में ऐसा करके जा तू
कि जिससे दुनिया तुझको याद तेरे बाद कर ले।
लीलावती बंसल
प्रस्तुतकर्ता- भावना

10 नवंबर 2008

प्रेम का पाठ

प्रिय पाठकों आज मैं आप सबके लिये अपनी मातृतुल्य संतोष कुँअर जी की एक रचना लेकर आई हूँ आशा है आप सबको पंसद आयेगी।
मम्मी जी को लिखने का बचपन से ही शौंक है। बाल-कविताएँ एवं कहानियाँ उनकी खास पंसदगी हैं। उनकी "प्यारे बच्चे प्यारे गीत" पुस्तक बच्चों को बहुत लुभाती है, अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ और बाल-गीत छपते रहते हैं आज़ भी वे लगातार लिख रहीं हैं मैं जब भारत उनके पास गई तो मैंने असंख्य कहानियाँ और बाल-गीत उनके पास देखे जिनको मैं अपने साथ लाने से ना रह पाई और जो भी मैंने अपनी इस बार की भारत यात्रा पर पाया उस सबको अपने मित्रों के साथ बाँटना भी चाहा शायद आप लोगों का स्नेह ही मुझे ऐसा करने को प्रेरित करता है ये रचना शायद बच्चों को पंसद आये इसी आशा में… शीर्षक है …


प्रेम का पाठ
मोहन-सोहन हैं दो भाई
उनमें होती बहुत लड़ाई
एक बार मामाजी आये
साथ कई गुब्बारे लाये
सूखे-सूखे, गीले-गीले
लाल-हरे और नीले-पीले
मोहन बोला-'सिर्फ मुझे दो।'
सोहन बोला-सिर्फ मुझे दो।'
छीन-झपट में इतने सारे
फूट गये प्यारे गुब्बारे
मामा ने तब यह समझाया
और प्रेम का पाठ पढ़ाया-
'वो जो बात-बात पर लड़ता
बना बनाया काम बिगड़ता।
संतोष कुँअर

5 नवंबर 2008

बहुत सारी मीठी-मीठी यादों के साथ भारत यात्रा से वापसी...

मधुर यादों के साथ सपरिवार भारत लौटे, उन्हीं यादों में से कुछ यादें आप सब लोगों के साथ बाँटना चाहूँगी।
सबसे पहले बात करते हैं अम्माजी की जी हाँ हम उन्हें अम्माजी का सम्बोधन देते हैं क्यों? क्योंकि हमारे श्वसुर जी भी उनको अम्माजी जो कहते हैं अम्माजी जानी-मानी लेखिका, कवयित्री,शायरा, सितार वादिका, कला में पारंगत और भी ना जाने कितनी खूबियों की धनी हैं हमारी अम्माजी। जिनका पूरा नाम लीलावती बंसल है जो गाज़ियाबाद में रहती हैं ,उम्र है ९० खूब लिखती पढ़ती हैं किन्तु चलने में अब थोड़ा परेशानी है तो क्या हुआ लेकिन हौंसले तो बहुत बुलन्द हैं। कितने ही साल अमेरिका में रहने के बाद अपने वतन में वापिस आ गयी हैं अपने पतिदेव के साथ। बाकी सभी बेटे बहुएँ अमेरिका में हैं। अम्माजी कम्यूटर पर काम नहीं कर सकतीं मैं उनकी रचनाओं को आप सबके सामने लाना चाहती हूँ शायद आप सबको अच्छा लगे। उनकी किताबों की संख्या बहुत है जिसकी चर्चा अगली पोस्ट में करेंगे तब तक आप उनकी लिखी एक गज़ल का आन्नद लीजिये…

लीलावती बंसल जी की एक
गज़ल
माना कि कुछ नहीं हूँ मैं,लेकिन भरम तो है
यानि खुदा का मुझपे भी थोड़ा करम तो है।

दौलत खुशी की मुझपे नहीं है तो क्या हुआ
मुझपे मगर ये मेरा ख़ज़ाना-ए-गम तो है।

माना कि मुझको वक़्त ने बर्बाद कर दिया
इस पर भी मेरे हाथ में मेरी क़लम तो है।

पूछा उन्होंने हाल तो कहना पड़ा मुझे
शिद्दत ग़मे-हयात की थोड़ी-सी कम तो है।

चलिए, मैं बेशऊर हूँ, बे-अक़्ल हूँ बहुत
लेकिन हुज़ूर, बात में मेरी भी दम तो है।
प्रस्तुतकर्त्ता - भावना कुँअर

28 अक्तूबर 2008

रोशन दिये हम यूँ ही करते रहें...

--भारत से वापसी के बाद--
दिल के दरमियाँ की ओर से सभी पाठकों को दीपावली की ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ---

() () () () () () () () () () () () ()
रोशनी के दिये यूँ ही जलते रहें
लड़खड़ाये कदम भी सँभलते रहें
लाये त्यौहार सौहार्द हर दिल में यूँ
साथ कदमों से मंजिल पर चलते रहें।
भावना,प्रगीत,कनु और किट्टू

30 जून 2008

कुछ दिनों के लिये लिखने पढ़ने से विदा...

एक लम्बे अरसे बाद ८ जुलाई को भारत जाना हो रहा, अपने परिवार के साथ रहने का अवसर मिल रहा है अज़ीब सा एहसास है मन में , कभी २ या ३ साल में जो जाने को अवसर मिलता है, क्योंकि यहाँ भी कभी हमें छुट्टी नहीं, कभी हमारे साहब को, तो कभी बच्चों के पेपर, पर अब अच्छा लग रहा है,बस आप लोगों से और नेट से ज्यादा सम्पर्क नहीं रह पायेगा , आप सबको बहुत मिस करूँगी २ महीने बाद मुलाकात होगी ,कोशिश करूँगी इस पर bhawnak2002@gmail.com बने रहने की तब तक लिये लिखने पढ़ने से विदा...

Dr. Bhawna

26 जून 2008

जरा आजकल तबियत नासाज़ रहती है लिखने का तो बहुत दिल करता है मगर शब्द हैं कि आह !बनकर उड़ जाते हैं पकड़ने की कोशिश जारी है…


बड़े-बड़े सपने
जो अचानक
दिखाये थे तुमने!
वो सब सपने
दिल की दहलीज़ पर आकर
खुशी में बरसे
आँसुओं की झड़ी में
फिसल कर रह गये…
काश ! मैंने
उन सपनों को
जिया ना होता…
काश ! मैंने उन्हें
सच ना माना होता…
काश ! मैंने उन्हें
दिल की धड़कन में ना समाया होता…
काश !
आँसुओं को झरने से
रोका होता…
तो आज़
मेरे भी वो सपने
साकार होते…
कहते हैं ना
कभी खुशियों को
खा जाती है…
नज़र की डायन…
मेरे साथ भी
ऐसा ही हुआ
जो सपने मेरे थे…
जो कुछ ही पल में
साकार रूप लेने वाले थे…
चुरा लिया उन्हें
कुछ कमजर्फ लोगों ने…
मिटा ली नज़र की डायन ने
उनसे अपनी भूख…
और मेरे सपने
मेरे ही दिल की दहलीज़ से
फिसल कर जा गिरे
उन लोगों के दामन में
जिन्होंने सदा ही
छीना था मेरी खुशियों को…
और आज़
छीन लिया मुझसे
मेरे जीने का हक भी
काश ! मैं उन सपनों को
कहीं छुपाकर रख पाती…
तो आज़ जीने का हक तो ना खोती…
जिन्दा रहती तो
शायद फिर से
अपने दिल के घरौंदे में
सज़ा पाती नये-नये सपनों को…
और साकार कर पाती
हर सम्भव सपने को…
काश ! ऐसा हो पाता…


भावना

16 जून 2008

एक बार फिर खिले फूल



पर... क्या... इनकी खुशबू आप दोस्तों के बिना कुछ मायने रखती है? बिल्कुल नहीं तो फिर आईये ना... बस थोड़ा सा कष्ट कीजियेगा... और इस लिंक को क्लिक कीजियेगा और अपनी राय जरूर दीजियेगा... आपकी राय के बिना इन फूलों का महत्त्व ही क्या...
रचना यहाँ भी पढ़ी जा सकती है http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/kachnar/bhawna_kunwar.htm

भावना कुँअर

8 जून 2008

वायरस के कारण टूटा आप सब लोगों से रिश्ता...



काफी एंटी वायरस सोफ्टवेयर के होने के बावज़ूद भी वायरस हार्ड डिस्क में पहुँच गया जिसके कारण आप सभी लोगों से सम्पर्क लगभग टूट ही गया आज़ काफी समय बाद कुछ पोस्ट कर पा रही हूँ प्रगीत का लिखा हुआ..


प्रगीत की कलम से...


दर्द के गाँव में भटका हुआ मुसाफिर हूँ

ढूँढ रहा हूँ खुशी का घर

सुना है आँसुओं का सैलाब आया था इस गाँव में

शायद बहा ले गया वो खुशी के घर को भी।


प्रगीत कुँअर

28 अप्रैल 2008

तो क्या ! अब मुझे हमेशा के लिये अपनी मिट्टी से दूर रहना होगा

आज़ एक खबर पढ़ी, पढ़कर हमारी तो सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। खबर थी कि अब पी-एच० डी० और एम० फिल० की डिग्री लेकर भी आपको नेट की परीक्षा देनी होगी ऐसा विचार किया जा रहा, अब जब विचार किया जा रहा है तो उसको पूरा भी होते कहाँ देर लगेगी वैसे ही क्या बेरोज़गारी कम है भारत में जो अब और बढ़ाने के रास्ते खोज़े जा रहे ,हैं क्या पी-एच० डी० और एम० फिल० करना इतना आसान है मुझसे पूछो मैंने कितने पापड़ बेले हैं अपनी पी-एच० डी० पूरा करने के लिये तब जाकर इस डिग्री को हासिल किया है, पूरा किया है अपना ख्वाब डिग्री कॉलेज़ में जॉब करने का।

अगर ये नेट परीक्षा पहले से ही होती तो अच्छा था हम भी देते, हो सकता है अभी भी अच्छा हो, पर अब हम जैसों का क्या?

अब मैं यहाँ युगांडा में हूँ जॉब कर रही हूँ वैसे तो सैटल्ड हूँ अपने वतन से भी जुड़ी हूँ ब्लॉग के माध्यम से लेकिन कभी-कभी एक हूक सी उठती जब अपने वतन की याद आती है तो मन करता है कि सब कुछ छोड़कर चली जाऊँ अपने वतन की छाँव में, पर अब ये खबर पढ़कर तो लगता है वो छाँव मुझे अब कभी भी नसीब नहीं होगी, क्या मैं भारत जाकर पहले नेट का पेपर दूँ? फिर से पढ़ूँ? तो मतलब ये हुआ की मेरी इतने सालों की नौकरी, मेरी इतने सालों की पढ़ाई सब बेकार थी और मैं घर में बैठकर मक्खियाँ मारूँ, नहीं ये सब कैसे कर सकूँगी पढ़ना पढ़ाना मेरी जिंदगी की साँसे है, मेरी धड़कन है तो क्या मैं अपनी धड़कन के बिना जिंदा रह पाऊँगी ? अब मैं बहुत असमंजस में हूँ कि क्या कभी मैं अपना ख्वाब पूरा कर पाऊँगी...
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डॉ० भावना
मेरा आशय किसी को भी आहत करने का नहीं था, जो बात इस समाचार को पढ़कर मेरे दिल में आई वही मैंने आप दोस्तों से शेयर करना चाही ....
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26 अप्रैल 2008

आईये थोड़ा सा लुत्फ आप भी उठा लीजिये

24 अप्रैल का पूरा दिन बहुत व्यस्त गया जाता भी क्यों नहीं मेरी छोटी बेटी के स्कूल में " कला प्रदर्शनी " जो थी। वहाँ बच्चों का हुनर देखते ही बनता था कहीं पर कला की बात हो और हम ना जायें ऐसा तो हो नहीं सकता और बीच में ही प्रोग्राम छोड़कर चले आयें ये ना हमारी सभ्यता हमें करने देती है और ना ही हमारी आदत है।


बच्चों ने बहुत-बहुत सुन्दर पेंटिग बनायी हुई थी आप लोग तो देखने से वंचित रह गये आप हमें यहाँ बैठे-बैठे हमारे देश हमारे शहर की हमें सैर कराते हैं तो चलिये आज़ हम भी यहाँ नन्हें-मुन्नों की कलाकारी आपको दिखाते हैं ...

यह एक ऐसा समूह है जो रंग भेद बिल्कुल नहीं जानता अगर कुछ जानता है तो वो है प्यार, इनकी नन्हीं-२ मुस्कानों में मैंने खुद को एक बंधन में बंधा हुआ पाया "प्यार के बंधन में" जिसने मुझे प्रोग्राम की समाप्ति तक बांधे रखा ...

सर्वप्रथम कुछ चित्र देखिये जो बच्चों ने बनाये हैं-


मेरी बेटी ऐश्वर्या (उम्र ७ वर्ष) द्वारा बनाया चित्र :





ऐश्रवर्या द्वारा बनाया "ऐलियन मास्क":




ऐश्रवर्या द्वारा बनाया आईस्क्रीम स्टिक का हैट जिस पर पोस्टर कलर से बनाई खोपड़ी और हड्डी :

एक बच्चे द्वारा बनाया गया स्पाइडर मैन जो थर्माफोल से बने टी० वी० के अन्दर दिखाया गया :




कोल्ड ड्रिंक की स्ट्रा से बना घर, पिस्ते के छिलके से बना पेड़ और क्ले से बने फूल क्या शोभा दे रहे हैं:

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इसके बाद नम्बर आया फैशन शो का इसमें काफी बच्चों ने भाग लिया इसकी खासियत ये थी कि फैशन शो में पहने जाने वाले सभी वस्त्र बड़े अनोखे थे देखिये-





ये मोबाईल के रीचार्ज़ कार्ड से बनी ड्रैस हैः




ब्रूम स्टिक से बनी ड्रैस :
आज़ कम्यूटर थोड़ा थका हुआ महसूस कर रहा है घिसट-घिसट कर चल रहा सुबह १० बज़े पोस्ट डालनी शुरू की थी अब शाम के ५ बज़ने वाले हैं पर पोस्ट है की पूरी होने का नाम ही नहीं लेती शायद इतनी पिक्चर डालने से ये बुरा हाल हुआ है, तो अब मुझे चलना चाहिये आज़ वीक एंड हैं घूमने जाना है बहुत लेट हो गयी हूँ अभी भी पोस्ट में ही उलझी रही तो मेरे बच्चे मुझसे नाराज़ होकर सो भी जायेंगे, तो अलविदा फिर मिलेंगे अगर आपको चित्र पंसद आये तो टिपण्णी देना भूलियेगा मत और फिर लौटेंगे और चित्रों के साथ...
भावना कुँअर

19 अप्रैल 2008

आप सबके सहयोग और स्नेह की आभारी



प्रिय पाठकों मेरी नव प्रकाशित पुस्तक "तारों की चूनर" (हाइकु संग्रह) के बारे में विस्तृत जानकारी के लिये निम्न लिंक पर देख सकते हैं आप सबके सहयोग की आशा करती हूँ।

इस पुस्तक को प्राप्त करने के इच्छुक मित्र भी इस लिंक के माध्यम से पुस्तक को प्राप्त कर सकते हैं:


डॉ० भावना कुँअर

10 अप्रैल 2008

अरे कोई आत्मा आ गई तो !



यूँ बने हम भी हँसी के पात्र …

हुआ यूँ कि शुक्रवार को हमारे पतिदेव (प्रगीत) के मित्र ने उनको बताया कि " सर जी कल से तो नवरात्र शुरू हो रहें हैं" ।

" अच्छा" हमारे पतिदेव ने बस इतना ही कहा…
तभी उनके मित्र ने अमेरिका अपने बेटे को फोन मिलाया और बोले-" बेटे कल से नवरात्र शुरू हो रहें हैं तो तुम प्याज़, लहसुन मत खाना और हो सके तो सारे व्रत रख लेना या फिर पहला और आखिरी रख लेना और पूजा कर लेना" ।

बेटे ने भी एक समझदार बेटे की तरह " जी पापाजी" कहकर उनका मान बढ़ाया।
प्रगीत के मित्र बोले कि -"मेरी पत्नी का इंडिया से फोन आया है कि कल से नवरात्र शुरू हैं इसीलिये मैं आपको बता रहा हूँ"।

प्रगीत बोले-"ठीक है मैं भी घर में फोन करके बता देता हूँ कि वो भी तैयारी कर लें मैं तो ज्यादा जानता नहीं क्योंकि मेरे परिवार में तो मम्मी कबीर पंथी होने के कारण ये सब नहीं करती किन्तु मेरी पत्नी देवी जी की पूजा भी करती हैं और नवरात्र भी रखती हैं मैं और बच्चे भी उनका अनुशरण करते हैं"।

अब जैसे ही प्रगीत का फोन आया मैं तो जुट गयी तैयारी करने में जल्दी से कॉलेज़ से लौटी फटाफट सुपर मार्केट पहुँची व्रत की सामग्री लेने, कहीं कुछ मिला तो कहीं कुछ, खैर अन्त भला तो सब भला, बड़ी भागदौड़ के बाद जो कुछ मिला घर लेकर आई और आने वाले कल की तैयारी करके रख दी। हाउस गर्ल को बोला-" कल जल्दी आना हमारे व्रत शुरू हो रहें हैं तुमको जल्दी आकर घर की साज- सफाई करना हैं ताकि हम जल्दी से पूजा करके अपने-अपने ऑफिस निकल जायें"।

हम लोग बच्चों सहित जल्दी-2 उठे बहुत श्रद्धा के साथ पूजा पाठ किया और थोड़े फल लेकर अपने-अपने काम पर निकल पड़े, कोई १२ बजे मेरे पास प्रगीत का फोन आया वो बोले कि-“ आज़ हमें डिनर पर उनके दोस्त ने बुलाया है तो मैंने उनको बोल दिया कि हमारा तो व्रत है तो हम खाना तो नहीं खायेंगे हाँ मगर मिलने जरूर आ जायेंगे क्योंकि मिले हुये भी काफी समय हो गया है"।

मैंने कहा-“ ठीक कहा आपने” और शाम को ७ बज़े का प्रोग्राम तय हो गया। हम अक्सर वीक एंड पर दोस्तों के यहाँ बारी-बारी से डिनर का प्रोग्राम रखते हैं इससे मिलना जुलना भी हो जाता है और यहाँ परदेस में अपनों से हुई दूरी से दुखी मन को, अपने बीते हुये दिनों को, अपने बचपन को, एकदूसरे से कह सुनकर मन को हल्का करने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी बच्चों के पेपर हों तो ये सब स्थगित करना पड़ता है। इसी कारण इस बार एक-दूसरे से मिले एक महीना बीत गया।

अभी दोपहर के २ बज़े थे कि मेरी मित्र का फोन आया वो मुझसे बोली कि - "नवरात्र तो सोमवार से हैं हमने अभी इंडिया फोन किया है क्योंकि जब से तुमसे बात हुई है हमारा तो मूड़ बहुत खराब हो गया था कि हमारे नवरात्र छूट गये पर उन लोगों ने बताया है कि वो तो सोमवार से हैं"।

अब अब चौंकने की बारी मेरी थी , मेरा तो दिमाग खराब हो गया, ऐसा पहली बार हुआ कि हमने ना तो न्यूज़ ही देखी ना ही इंड़िया फोन किया, मन पर विचारों की आँधियों ने हल्ला बोल दिया –“पर पापाजी तो हमेशा ही हमें सूचित करते हैं इस बार उन्होंने भी नहीं बताया” अपने आप से बड़बड़ाती रही, खैर हमने तुरन्त पापाजी को फोन मिलाया और अपना पूरा हाल कह सुनाया अब तो बारी पापाजी के बोलने की थी और हमारी सुनने की, वो बोलते रहे और हम मुँह लटकाये सुनते रहे, जब हम से नहीं रहा गया तो हमने कहा कोई बात नहीं अब रख लिया तो रख लिया अब क्या तोड़ना फिर एक बड़ी सी डाट खायी वो बोले- "तो क्या तुम अमावस्या की पूज़ा करके कोई सिद्धी पाना चाहते हो? चुपचाप जाओ और जाकर सब खाना खाओ"।

हमने सहमे हुये-" जी पापाजी" कहकर फोन रख दिया। अब घर आये मुँह लटकाये अब तो शरीर में जान भी ना बची खाना बनाने की ना ही खाने की पापाजी की डाट जो खायी थी खैर अब- जल्दी-जल्दी ढ़ोकला बनाया बच्चों को जैसे तैसे समझाया खुद भी खाया और पड़ोस में भी भिजाया। फिर प्रगीत को फोन मिलाया उन्हें भी खाने को उकसाया और पापजी की डाट का किस्सा सुनाया। फिर मैंने अपनी मित्र को फोन मिलाया उनको बताया कि तुम सही थी पर बिल्कुल सही नहीं थी -"क्योंकि नवरात्र सोमवार को नहीं रविवार को हैं "।वो बोलीं हो सकता है पर हमें तो सोमवार ही बताया है खैर जब भी हों आज़ नहीं हैं ना तो बस आप लोग आ जाईये हम इन्तज़ार कर रहें है…

अब खबर है तो फैलेगी ही ना हम वहाँ पहुँचे वहाँ हमारे काफी मित्र थे जो भी मिले वही पूछे क्यों साहब आज़ आपने व्रत रखा अमावस्या को? कौन सी सिद्धी प्राप्त की ? कोई कहता अरे आज़ आप लोगों से दूर ही रहना होगा कहीं आप किसी आत्मा को ना बुला लें या वो आपके पूज़ा करने से खुदबखुद ही ना आ जाये क्योंकि इस दिन तो तांत्रिक पूज़ा किया करते हैं। ये सब बातें चल ही रही थी कि पापाजी का फोन आ गया वो बोले -"बेटा नवरात्र सोमवार से ही हैं"।

अब हम उस महफिल में जाकर लटके मुँह से सबको कहते हैं कि- " पापाजी का फोन आया है वो बोले कि-“ नवरात्र सोमवार से हैं " बस वो सब हमारी शक्ल देखें और हँसे और हम ? हमारी हालत तो आप सोच ही सकते हैं कैसी हुई होगी तभी तो अपना दुख, अपना लटका चेहरा आप दोस्तों में शेयर करने आ गये प्लीज़ आप लोग मत हँसियेगा…


(यह लेख किसी भी व्यक्ति या धर्म पर कटाक्ष नहीं है अगर किसी भी व्यक्ति को किसी भी बात का बुरा लगे तो मैं पहले से ही माफी माँगती हूँ …)


झूठ नहीं बोलूँगी क्योंकि अब व्रत चल रहें हैं हम अपने बच्चों को और खुद को भी अपनी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा रखने का भरसक प्रयास करते हैं…


भावना

30 मार्च 2008

आइये बधाई देने का अवसर आया...


१४ फरवरी २००८ को उत्तर प्रदेश हिन्दी सस्थान द्वारा घोषित वर्ष २००६ के लिये साहित्यकार डॉ० कुँअर बेचैन को 'हिन्दी गौरव सम्मान' कल २८ मार्च २००८ को लखनऊ के 'यशपाल सभागार' में दिया गया। इसमें उनको प्रशस्ति पत्र के साथ-साथ २ लाख रुपये की राशि भी सम्मान रूप में दी गई उनके इस सम्मान के लिये 'दिल के दरमियाँ' एवं उसके पाठकगण की ओर से उनको हार्दिक बधाई ...
चित्र साभार दैनिक जागरण २९ मार्च २००८

28 मार्च 2008

दिल को झकझोर देने वाले कुछ लम्हें....

अन्तिम यात्रा
A और B दो अलग-अलग संप्रदाय के होते हुए भी इतने अभिन्न मित्र थे कि उनकी मित्रता ही उनकी पहचान और दूसरों के लिये मिसाल बन चुकी थी। बचपन से ही पड़ोसी रहे दोनों का ही बचपन साथ-२ पुराने शहर की गलियों में दौड़ते हुये फिर स्कूल, कॉलेज तक और बाद में साथ-साथ ही सेना की नौकरी तक जवानी तक पहुँचा था। विवाहोपरान्त भी दोनों के आपसी संबंध में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ था। दोनों ने साथ ही पसीने की कमाई से शहर से बाहर बस रहे नये शहर में बराबर-२ के मकान बनवाये थे ताकि वृद्धावस्था में भी समय साथ ही बिताने का मौका मिला रहे।

दोनों के एक-एक पुत्र थे और वह भी पढ़ लिखकर पिता की तरह ही देश की सेवा के लिये सेना में भर्ती हुए थे अब A और B का भी रिटायरमेंट हो चुका था और सेना की अनुशासनता और दबंगता दोनों में अब भी उतनी ही थी जितनी सेना की नौकरी के समय हुआ करती थी । दोनों साथ-साथ ही अपने-२ संप्रदाय के तीज - त्यौहार भी साथ-२ मनाते थे। वह अकसर देश और समाज में फैली सम्प्रदायकता से जुड़ी बुराईयों पर विचार करते और दुखी होते थे। यही कारण था कि दोनों ने यह निर्णय लिया था कि' अपना समय समाज में फैली बुराईयों को दूर करने में ही लगायेंगे।
दोनों कभी अपना पुराना समय याद करने के लिये अपने दुपहिये वाहन को लेकर पुराने शहर की उन्हीं तंग गलियों में निकल पड़ते और पुराने हलवाई,पान वालों आदि की दुकान पर उनका लुत्फलेतेअपानीपेंशन का एक हिस्सा दोनों ही समाज के ऊपर खर्च करने में लगाते और समय-समय पर प्रौढ़ शिक्षा, चिकित्सा कैंप आदि का आयोजन करते रहते। यही कारण था कि दोनों ही आम लोगों में बहुत ही लोकप्रय हो चुके थे।

अब तो शहर में होने वाले किसी भी सरकारी आयोजनों में उनको आंमत्रित किया जाना जैसे अनिवार्य सा हो चुका था। चाहे जिलाधिकारी हों या पुलिस अधीक्षक आदि सब उनका अभिवादन करते थे। मगर ना जाने सांप्रदायिकता की आग ने क्यों पुराने शहर को अपने शिकंजे में बुरी तरह जकड़ रखा था। कोई तीज-त्यौहार आया नहीं कि सांप्रदायिक दंगे भड़क उठते थे पूरे शहर में और परिणाम कर्फ्यू। दोनों ही यह सब देखकर बहुत हताश हो जाते थे और भरपूर प्रयास करते थे लोगों में जागरूकता लाने की, पुलिस अधीक्सक भी अकसर उनसे राय मशवरा लेते थे इन हालातों पर ।

इस वर्ष फिर गुप्त सूत्रों द्वारा पुलिस को सूचना मिल रही थी कि कुछ बाहरी ताकतों की राय में फिर दंगाईयों ने दंगा करने की योजना बनायी है।पूरे शहर में रैड अलर्ट थी और आने आते जाते वाहनों की गहन जाँच पड़ताल चल रही थी । कुछ मौहल्लों से छुटपुट वारदातों की भी सूचना पुलिस महकमें में आये दिन आने लगी थी। मौके की गंभीरता को देखते हुए पुलिस अधीक्षक ने शहर के सभी प्रमुख व्यक्तियों के साथ एक सभा का आयोजन किया जिससे इस बात पर विचार किया जाना था कि कैसे इन हालातो को सुधारा जाये और पहले की तरह सामान्य बनाया जाये। Aऔर B भी '''इस आयोजन में आमंत्रित थे और हमेशा की ही तरह दोनों बिना अनुपस्थित B भी इस आयोजन में अपनी दुपहिया को लिये तैयार थे पुलिस अधीक्षक के आफिस तक जाने के लिये। हालांकि आज A कुछ अस्वस्थ थे और मगर B के लाख मना करने पर भी A उस सभा को छोड़ने के लिये तैयार न थे।आखिर B को भी उनके सामने झुकना पड़ा और साथ-साथ सभा में ले जाना पड़ा। सभा बहुत ही सफल रही और A और B के सुझावों की सभी गणमान्य व्यक्तियों ने बहुत ही सराहना भी की। सभा समाप्ति के बाद दोनों साथ ही आफिस से बाहर आये और दुपहिये पर बैठ गये।

A की तबियत में अ'भी भी ज्यादा सुधार नहीं था। मगर सेना की दबंगता A को झुकने के लिये तैयार नहीं थी। B ने सुझाव दिया कि अच्छा होगा कि लम्बे रास्ते की जगह पुराने शहर की पुलिया से चला जाये ताकि पूरा शहर भी पार न करना पड़े और घर भी शीघ्र पहुँच जायें। दोनों की सहमति होने पर A ने दुपहिये को ड्राइव करना शुरू किया और B हमेशा की तरह A के पीछे की सीट पर बैठ गये। दोनों ही सभा में हुई चर्चाओं के बारे में बात करते हुये पुराने शहर की पुलिया तक पहुँच गये। पुलिया पर चढ़ाई के समय A के दुपहिये ने भी अपनी हालत नासाज होने का सिग्नल दिया और दो व्यक्तियों को साथ ले जाने से साफ इंकार कर दिया। B ने A को कहा कि क्योंकि A की तबियत ठीक नहीं है इस लिये अच्छा है कि A अपने दुपहिये से अकेले ही पुलिया को पार कर ले और B पैदल ही चलकर पुलिया पार कर ले।

पहले तो A ने साफ इंकार किया और कहा कि दोनों पैदल ही दुपहिया को हाथ में लेकर पुलिया पार कर लेंगे। मगर B ने A को विवश कर ही दिया कि A अस्वस्थ होने के कारण A को अकेले पुलिया ही दुपहिया पर बैठकर पार करनी चाहिये और B पैदल पीछे-२ आ जायेंगे और फिर A चल पड़े अपने रास्ते और B पीछे-२।मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। दंगाई जो कि A के संप्रदाय के थे शहर में हल्ला करते हुए उसी पुलिया से गुजर रहे थे और जब उन्होंने रास्ते में B को अकेला पाया तो उन कठोर ह्रदय लोगों ने B के अस्तित्व को इस तरह तहस-नहस किया कि B की आह तक भी A तक नहीं पहुँच सकी। जब A ने धीरे-धीरे पुलिया पार की ओर पुलिया के दूसरी ओर B का इंतजार करने लगा मगर उसका इंतजार इतना लम्बा हो गया जायेगा उसको ये अंदेशा भी न था। जब B ने पुलिया के उस पार उस ओर से दंगाईयों को अक्रामक तरीके से आते हुये देखा तो उसके चेहरे पर चिन्ता की लहर दौड़ गयी और वह सब कुछ भूलकर पुलिया के दूसरी ओर दौड़े मगर जल्द ही उनको खून के धब्बे B का चश्मा और B के स्लीपर तितर-बितर नजर आये और अंत में वही भयानक दृश्य A की आँखों के सामने आ ही गया जिसका डर A के मन में अनचाहे ही आ चुका था। A की तो जैसे दुनिया ही उजड़ चुकी थी।आज उसके सामने उसका बचपन का साथी अन्तिम यात्रा पर निकल चुका था और A निशब्द उसको एकटक देखता ही रह गये क्योंकि उन्हें इस यात्रा में भी तो B का साथ जो देना था।


प्रगीत कुँअर

20 मार्च 2008

परदेश में, जब होली मनाई, तू याद आई ......

आप सभी मित्रों को होली की ढे़र सारी शुभकामनाएँ
हुई आहट

खोला था जब द्वार

मिला त्यौहार ।

आया फागुन

बिखरी कैसी छटा

मनभावन।


खेले हैं फाग

वृन्दावन में कान्हा

राधा तू आना।


तन व मन

भीगे इस तरह

रंगों के संग।


स्नेह का रंग

बरसे कुछ ऐसे

छूटे ना अंग।


रंगी है गोरी

प्रीत भरे रंगों से

लजाई हुई।


आई है होली

रंगी सब दिशाएं

दिल उदास ।


पिचकारी से

रंगों की बरसात

लाया फागुन ।


परदेश में

जब होली मनाई

तू याद आई ।


अगले साल

मिलेगें अब हम

फिर होली में ।
भावना

16 फ़रवरी 2008

डॉ० कुँअर बेचैन जी हिन्दी गौरव सम्मान से अलंकृत


गत बृहस्पतिवार दिनांक १४ फरवरी को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ ने अपने वर्ष २००६ के विभिन्न पुरस्कारों की घोषणा की, यह पुरस्कार हिन्दी क्षेत्रीय साहित्यकारों को उनके साहित्य में किये गये योगदान के लिये दिया जाता है।

इन पुरस्कारों में इस वर्ष "हिन्दी गौरव सम्मान" के लिये 'डॉ० कुँअर बेचैन' जी को चुना गया है। जिसके तहत 'डॉ० कुँअर बेचैन' जी को २ लाख रूपये एवं प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया जायेगा, जो उनके हिन्दी गज़ल में किये नये प्रयोगों एवं अन्यविधाओं में दिये गये योगदान के लिये दिया जायेगा।
दिल के दरमियाँ और पाठकगणों की ओर से इस सम्मान के लिये उनको बहुत-बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनायें...
डॉ० भावना

24 जनवरी 2008

इन्तज़ार... सफ़र के अन्तिम पड़ाव का


उदासी के ये बढ़ते घेरे

मेरे अन्तर्मन में

काले सर्प की तरह

फन फैलाकर

बैठ गये हैं।


एक अँधेरे कुँए में

फेंक दिये गये

अजन्मे शिशु की तरह

डूबता जा रहा है

मेरा अस्तित्व।


सन्नाटे भरा हर पल

मेरे रोम-रोम को

भूखे शेर की तरह

नोंच-नोंच कर खाये जा रहा है।


जन्म से मृत्यु की
ओर

बढ़ता ये
सफ़र

साँसों की धूमिल डगर
को

तार-तार किये जा रहा है।


अब तो है बस इंतजार

इस सफ़र के अंतिम पड़ाव का

ताकि फिर कर सकूँ तैयारी

इक नये सफ़र की।


शायद आने वाला नया सफ़र

दे सके मेरे सपनों को

एक पूर्णता

एक नयी उंम्मीद...

डॉ० भावना