शाम के वक्त
घर लौटते हुए
चौंका दिया मुझे एक
दर्द भरी आवाज़ ने
मैं नहीं रोक पाई स्वयं को
उसके करीब जाने से
पास जाकर देखा तो
बड़ी दीन
अवस्था
में
पड़ा हुआ था एक ‘मिट्टी
का दीया’
मैंने उसको उठाकर...
अपनी हथेली पर रखा
और प्यार से सहलाकार
पूछा
उसकी कराहट का मर्म...
उसकी इस अवस्था
का जिम्मेदार...
वह सिसक पड़ा...
और टूटती साँसों
को जोड़ता
हुआ सा
बहुत छटपटाहट
से बोला...
"मैं भी होता था बहुत खुश
जब किसी मन्दिर
में जलता था
मैं भी होता था खुश जब...
दीपावली
से पहले लोग मुझे ले जाते थे अपने घर
और पानी से नहला-धुलाकर
बड़े प्यार से कपड़े से पोंछकर
सजाते थे मुझे तेल और बाती से
और फिर मैं...
देता था भरपूर रोशनी उनको
झूमता था अपनी लौ के साथ
करता था बातें अँधियारों
से
जाने कहाँ-कहाँ कि मिट्टी
को
एक साथ लाकर
कारीगर
देता था एक पहचान हमें
‘दीए की शक्ल में’
और हम सब मिल-जुलकर
फैलाते
थे एक सुनहरा
प्रकाश
पर अब...
हमारी जगह ले ली है
सोने, चाँदी और मोम के दीयों ने
अब तो दीपावली
पर भी लोग दीये नहीं
लगातें
हैं रंग बिरंगी
लड़ियाँ
बल्ब और मोमबत्तियाँ
और मिटा डाला हमारा अस्तित्व
एक ही पल में
तो फिर अब भी क्यों रखा है
नाम ‘दीपावली’ यानी
दीयों की कतार...
आज फेंक दिया हमें...
इन झाड़ियों
में
तुम आगे बढ़ोगी
तो मिलेंगे
तुम्हें
मेरे संगी-साथी
इसी अवस्था
में
अपनी व्यथा सुनाने
को
पर तुमसे पहले नहीं जाना किसी ने भी...
हमारा दर्द, हमारी तड़प
आज वही भूला बैठे हैं हमें
जिन्हें
स्वयं जलकर
दी थी रोशनी हमने।"