10 नवंबर 2015
3 नवंबर 2015
29 अगस्त 2015
राखियाँ घर नहीं आईं"
"राखियाँ घर नहीं आईं"
सदा की तरह राखियों
से
बाज़ार सजा होता,
कलाई सजे भाई की
ख़्वाब बहन का होता।
छोटे थे हम
प्यारा हमारा भाई
जाने फिर भी क्यूँ
सूनी रहती उसकी कलाई,
डबडबाई आँखों में
हजारों सवाल तैरते
जवाब भी मिलता
पर समझ नहीं आता।
दिखती बहना रोती
कहीं
भाई बिना सूनी भई।
कहीं भाई उदास होता
बहना उसके है नहीं।
पर हम तो हैं, दो छोटी बहनें,
बड़ा है, प्यारा सा एक भाई,
जाने क्यूँ फिर घर
हमारे
राखियाँ ही नहीं आईं?
आँसुओं से,लबालब आँखे
एकदूसरे को निहारती,
दुःख से हम बिलख ही
पड़ते,
फिर तीनों गले लगते
रोते-रोते सो जाते
दर्द
भरे सपनों में खो जाते।
आज बड़े हो गए
समझ भी अब सयानी हो गई
"आन
पड़ी है"
कहानी
ये पुरानी हो गई।
भाई
की लम्बी उम्र की कामना
आज
भी हर साँस करती है।
पर
आज भी तिरती है आँखों में,
राखियों
से सजी थाली।
पर
बात अब भी वही
पुरानी
रूढ़ी, परम्परा
वाली।
अब तो परदेस में बसी हूँ,
पर
पुराने रिवाज़ों में अब भी फँसी हूँ।
भाई
की सूनी कलाई,
आज
भी सीने में खटकती है।
आज
भी आँखों में, वो नमी
बेरोक-टोक
विचरती है,
और
सदा की भाँति "राखी"
आज
भी तो बस हमारे
दिल
ही में सँवरती है।
डॉ०
भावना कुँअर
24 जून 2015
11 मई 2015
"मीठी यादों के कुएँ"
साथ रखना
मीठी यादों के कुएँ
छोड़े अपने
जहर बुझे बाण
खाली न हो उनकी
जब कमान
एक लोटा याद ले
तू छिड़कना।
अँधेरी रात जब
गम से घिरे
अपनापन जब
कम सा लगे
यादों के जुगनू
को
हथेली में ले
मन अटरिया पे
हौले रखते
जरा न झिझकना।
सुहानी भोर
जब चुभने लगे
ओस मोती भी
जब हरने लगें
एक प्याली में
चाय संग घुली वो
मीठी सी याद,
हरी घास पे पड़े
झूले का साथ,
धीरे से निकाल तू
एक नई सी
दुनिया बुन लेना।
मीठे सपने
घुटन सीने में ज्यूँ
भरने लगें,
पलकों से दर्द ज्यूँ
झरने लगे,
मधुर मिलन की
बीती रात की
सुनहरी सी याद
हौले निकाल
तू पलकों के पास
मोती समझ
बिना किसी
हिचक
चुपके भर लेना।
Bhawna
15 मार्च 2015
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