7 दिसंबर 2009

वापसी अपनों के पास

प्रिय मित्रों आज बहुत दिनों बाद आप सबसे बात करने का अवसर मिला है, मेरी बहुत सारी मजबूरियाँ रही बेटी की तबियत बिगडना, मेरा युगांड़ा से सिडनी जाना और भी इस बीच काफी उथल-पुथल रही, पर अब आप लोगों को पढ़ने का सिलसिला हाँ लिखने का भी कोशिश करुँगी की ना टूटे, आप लोगों का स्नेह मुझे फिर खींच लाया अपनों के बीच यूँ ही स्नेह बनाये रखियेगा अपनी एक रचना आज़ पोस्ट करती हूँ आशा है पंसद आयेगी...

उदासी के ये बढ़ते घेरे
मेरे अन्तर्मन में
काले सर्प की तरह
फन फैलाकर
बैठ गये हैं।
एक अँधेरे कुँए में
फेंक दिये गये
अजन्मे शिशु की तरह
डूबता जा रहा है
मेरा अस्तित्व।
सन्नाटे भरा हर पल
मेरे रोम-रोम को
भूखे शेर की तरह
नोंच-नोंच कर खाये जा रहा है।
जन्म से मृत्यु की ओर
बढ़ता ये सफ़र
साँसों की धूमिल डगर को
तार-तार किये जा रहा है
अब तो है बस इन्तज़ार
इस सफ़र के अंतिम पड़ाव का
ताकि फिर
कर सकूँ तैयारी
इक नये सफ़र की
शायद आने वाला नया सफ़र
दे सके मेरे सपनों को
एक पूर्णता
एक नयी उंम्मीद।
भावना

24 अगस्त 2009

मेरी बेटी अब बहुत ठीक है...

प्रिय मित्रो,
आप सबकी सच्चे मन से की गई दुआओं से मेरी बेटी अब बहुत ठीक है, मैं अब परिवार सहित आस्ट्रेलिया में-सिडनी में आ गई हूँ अब यहीं रहना है,मैं जल्दी ही यहाँ का अनुभव आप सब लोगों के साथ बाँटूगी बहुत सारी बातें हैं जो आप लोगों को सुनानी हैं आप लोगों से सुननी हैं जरा थोड़ा सा समय चाहिये सैट होने में ...
स्नेह
भावना

16 मई 2009

मेरी नन्हीं सी जान...

मेरी प्यारी सी बेटी ऐश्वर्या जो मात्र ९ साल की है ...अप्रैल से ही बहुत बीमार चल रही ...है अभी तीन दिन पहले ही अस्पताल रहकर आई ...है अभी भी घर पर काफी दवाईयाँ दी जा रही ...हैं उसकी पढ़ाई भी बन्द ...है स्कूल जाने को डॉ० ने मना किया ...है मैं उसके कारण बहुत अपसैट ,हूँ इसीलिए ना ही कुछ लिख पाती ,हूँ ना पढ़ पाती ,हूँ मेरी जान मेरी प्यारी नन्हीं सी जान में अटकी ...है आज काफी दिन बाद मेल देखी तो काफी दोस्तों की मेल आई ...मिली मेरे ना पढ़ने ना लिखने का कारण जानने के ..लिए मैं मेरे दोस्तों की आभारी हूँ उनका स्नेह देखकर ...इसीलिए ये पोस्ट डाली है ताकि सभी को जानकारी मिल जाये मेरे ना पढ़ने और लिखने का ,कारण जैसे ही मेरी बेटी ठीक होकर स्कूल जाने लगेगी मैं वापस अपने दोस्तों और पाठकों के बीच आऊँगी...
स्नेह और आभार
भावना

2 अप्रैल 2009

फर्स्ट अप्रैल की मधुर स्मृति...

कल फर्स्ट अप्रैल पर मुझे भी मेरे बचपन की शरारतों ने आ घेरा, नींद का आँखों में नामोनिशान न था, रह-रहकर मुझे अपना मासूम, चुलबुला, प्यारा सा बचपन याद आ गया, अब तो वो मासूमियत दुनिया के थपेड़ों से कठोरता में,चुलबुलापन बच्चे और परिवार की जिम्मेदारियों में और बडप्पन में बदल गया है. लेकिन दिल तो वही है जिसमें यादों का खज़ाना हुआ है। उसी खज़ाने का एक प्यारा सा मोती आप सबके साथ बाँटना चाहूँगी…

ऐसा ही एक दिन था फर्स्ट अप्रैल का दिन, हम सभी परिवार के लोग अपने फार्म हाऊस पर गए हुए थे। हम भाई-बहिन बहुत धमा-चौकड़ी मचाते थे, शरारतें करते थे, पर पापाजी से सभी डरते थे, उन्हें देखकर तो बस साँप ही सूँघ जाता था, भूख-प्यास सब गायब हो जाती थी।

शाम का वक्त था मम्मी ने हमें बुलाया, वो रसोईघर में काम कर रहीं थी, हमसे बोली- "जाओ अपने पापाजी से कहो फार्म से अच्छा सा सीताफल ले आयें आज खट्टा मीठा सीताफल,परांठे और खीरे का रायता बना दूँगी, तुम लोगों को बहुत पंसद है ना" हमने भी खूब उछल-उछलकर कहा -"हाँ हाँ बहुत मजा आयेगा।" हमारी उम्र ६ साल रही होगी हम अपने बड़े भाई के साथ पापाजी को मम्मी की बात बताने पहुँच गए पापाजी ने कहा-“ चलो तुम लोग भी चलो” हम भी खुशी-खुशी पापाजी के साथ चल दिए। दूर-दूर तक फैले फार्म हमें बहुत भाये, चारों तरफ हरियाली ही हरियाली ,बहुत सारे पेड़ -आम,अमरूद, केले, कटहल, जामुन और भी ना जाने कितने, एक जगह पर बहुत सारी बेल फैली हुई थी जो रंग बिरंगे फूलों से सजी थी ,तब उनका नाम नहीं जानते थे, वहीं उन बेलों के पास पापाजी को जाते हुए देखा, शायद सीताफल वहीं होता है, यही सोचकर हम पापाजी का इन्तजार करने लगे जैसा कि उन्होंने आदेश दिया था।

थोड़ी देर बाद पापाजी को खाली हाथ आते हुए देखकर हमने पूछा- "क्या नहीं मिला "? तो वो बोले कि - "पहले ये बताओ कौन ले जाकर देगा अपनी मम्मी को मैंने तपाक से कहा- "मैं"। पापाजी ने कहा- "ठीक है मैं कुछ लेकर आता हूँ जिसमें उसको रख लूँ फिर तुम्हें दे दूँगा" । हमने हाँ में गर्दन हिला दी थोड़ी देर बाद वो एक कम्बल का टुकड़ा लेकर आये और वापस बेल वाले स्थान पर चले गए, वापस आये तो उनके हाथ में उस कम्बल के टुकड़े में सीताफल है सोचकर हम खुश होते हुए उनके पास पहुँचे, पापाजी ने थोड़ी दूर तक खुद ही रखने के बाद देने को बोला, क्योंकि वो हमारे लिए बहुत भारी था।

अब दरवाजे के पास जाकर उन्होंने हमें वो भारी-भरकम सीताफल दे दिया, हम ठहरे सींकड़ी पहलवान, हमसे वो सँभाले ना सँभले, पर हमने भी हार ना मानी और हम लुढकते पुडकते मम्मी के पास पहुँच गए, जो अँगीठी में कोएले डाल रहीं थी और चौकी पर बैठी थी हमने पापाजी के निर्देशानुसार जाकर, उनकी गोद में वो कम्बल के टुकड़े में लिपटा सीताफल लगभग पटक सा दिया, ताकि बोझ से निजात मिले, खाना तो बहुत पंसद था, पर आज जब उसको ढोना पड़ा तो नानी याद आ गई मैं,पापाजी और हमारे भाई वही खड़े मम्मी को उसको खोलते हुए देख रहे थे मम्मी ने जैसे ही उसको खोला तो तेजी से कोई चीज कूदती नजर आई और पापाजी जोर से चिल्लाए अप्रैल फूल बनाया, अप्रैल फूल बनाया हम भी उनके साथ यूँ ही चिल्लाने लगे और सभी उस भागने वाले जीव के पीछे दौड़े, मम्मी सहित, जानते हैं वो क्या था जी हाँ वो तो एक कछुआ था जो दौड़े जा रहा था और हम उसके पीछे ताली बजा-बजाकर नाच रहे थे फिर वो बाहर बने एक बड़े से नाले में कूद गया और हम बस मम्मी की शक्ल देखते रहे, जो अब भी उसकी सिहरन को महसूस कर रहीं थी।

(आज़ मैं यहाँ बहुत अकेला महसूस करती हूँ, उस मिट्टी की खुशबू को, उस शीतल हवा को अपने साँसों में महसूस करती हूँ, इतने दूर बैठे अपने माँ, पा को और कभी-कभी बच्ची बन खो जाती हूँ यादों के जंगल में ...परदेसी हवा और अपने वतन की हवा में बस यही तो अंतर है...)

डॉ० भावना

19 मार्च 2009

“जब मौत को मैंने देखा अपने बहुत ही करीब…

अनिल कान्त जी का संस्मरण "एनोदर डे ऑफ़ माय लाइफ " को पढ़कर बीता बचपन याद आ गया…

उम्र तो ठीक से याद नहीं है, बस इतना याद है कि हम छोटे थे। हम मम्मी पापा के साथ शहर में रहते थे।हमारी इकलौती बुआजी गाँव में रहती थी। हमने कभी उनका गाँव देखा नहीं था कारण मम्मी पापाजी कभी लेकर ही नहीं गये।

हमारे बड़े भाई (बुआजी के बेटे) शहर हमारे घर आये और हम भाई,बहन को अपने साथ ले जाने की जिद करने लगे, पर हमारे पापाजी के सामने किसी की चल सकती है भला, जहाँ पापाजी वहाँ कोई टिकता भी नहीं था। मम्मी को पटाया गया हाँ वो अलग बात है कि उनको पटाने पर भी हमको भेजा तो नहीं गया एक वादा जरूर किया गया कि… वो हमें लेकर वहाँ जरूर जायेंगे।

कुछ दिनों बाद पता चला हमारी बुआजी की बड़ी बेटी की शादी तय हो गई है ।अब हमने अपनी मम्मी को उनका किया वादा याद दिलाया… बस फिर क्या था… मम्मी लगीं पापाजी की मख्खनबाजी में… और आखिरकार मम्मी ने किला फतह कर ही लिया और हम सब चल पड़े शादी का आन्नद उठाने।


शादी बड़ी धूमधाम से हुई अपने बहन -भाईयों के साथ खूब मन लगा… अब बारी थी… बिछड़ने की… हम सब लगे फूट-फूट कर रोने …हमारा रोना हमारी बुआजी से देखा नहीं गया और उन्होंने हुक्म सुनाया कि बच्चे अभी नहीं जायेंगे बाद में बुआजी भिजवा देंगी। गुस्से में हमारी बुआजी भी पापाजी की ही तरह थीं । ( वो अब इस दुनिया में नहीं हैं पिछले दिनों कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई)पापाजी से उम्र में भी बड़ी थीं, तो पापाजी को भी उनकी बात माननी पड़ी। मम्मी पापाजी के साथ लौट गईं। हम भी बेफिक्र हो अपने भाई बहनों के साथ खूब खुश रहे, खेले कूदे, जाने की भी चिन्ता नहीं थी, स्कूल खुलने में कुछ ही दिन बचे थे तो हमारे दोनों भाई (हमसे दोनों ही बड़े हैं , दो बड़ी बहनें हैं।) हमें और हमारे बड़े भाई को छोड़ने आये, अब यहीं मुसीबत आ गई… हमें पता भी नहीं था कि हम वापस कैसे जायेंगे। अब सुबह-२ तैयार हुए और चल पड़े। अब भैया ने हमें ट्रैक्टर पर बिठाया और बढ़ लिए स्टेशन की तरफ …जब तक स्टेशन पहुँचे तो मारे पेट दर्द के बुरा हाल था, इससे पहले कभी ट्रेन में भी नहीं बैठे थे ट्रैक्टर तो बहुत दूर की बात थी। कार के आदी जो थे। बस अब आ गया स्टेशन, भैया ने सख्त हिदायत दी कि- हम हाथ ना छोड़े , बहुत भीड़ थी, भैया ने समझाया कि- "हमारी ट्रेन उधर आयेगी तो हमें नीचे उतरना है पटरियों से, पुल से जाने में ट्रेन छुट जायेगी जब मैं चलूँ तभी चलना।" हमने हाँ में गर्दन हिला दी जबकि वो बता हमारे बड़े भैया को रहे थे, बस हम इन्तजार करने लगे उनके आदेश का… हम तो वैसे बहुत एक्साइटिड थे ट्रेन में जाने के …भैया ने हम दोनों का हाथ पकड़ा और नीचे कुदा दिया, लाईन पार करने के लिए… बस यहीं हमसे चूक हो गई क्योंकि नीचे उतारने के बाद भैया ने हाथ छोड़ दिया और हम लगे अपनी धुन में ना जाने क्या सोचते हुए से चले गये सीधे और लाईन कर ली पार… हमने भैया को बोला-" ऊपर चढ़ाओ" अब भैया हों तो चढ़ायें देखा सब लोग चिल्ला रहें हैं – “अरे कोई बचाओ बच्ची मर जायेगी” हमें नहीं पता कि वो किसके लिए बोल रहे थे हमारा तो बस खून सूख गया… जब देखा कि हमारे भैया लोग उधर खड़े हैं… हमने तो बस उनकी सूरत देखी और वापस दौड़ पड़े उनकी तरफ, वो भी कुछ कह रहे थे, इशारा कर रहे थे , पर हमें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था, आ रहा था बस इतना कि हम अपने भैया से बिछड़ जायेंगे अगर इधर ही खड़े रहे तो, चीखना, चिल्लाना जारी था… हम जब लाईन के बीच में आये तो कान फाड़ देने वाली आवाज को सुना, दायें मुड़कर देखा तो ट्रेन हमारे बिल्कुल पास थी, जब मौत को हमने देखा अपने बहुत ही करीब तो होश ही उड़ गए …वहाँ खड़ी औरतों की तो सिसकियाँ तक फूट पड़ी, ना जाने कैसे हमने बाकी बची लाईन पार की, उसके आगे का कुछ पता नहीं जब आँख खुली तो हम ट्रेन में थे और हमारे भैया सहित कुछ लोग हमारे ऊपर पानी के छींटे मार रहे थे, हम खुद को इसी दुनिया में पाकर आश्चर्यचकित थे और डर के मारे बोल नहीं फूट रहे थे भैया हमें समझाने में लगे थे कि -" मामाजी से कुछ मत बताना वरना वो मुझे बहुत मारेंगे "

जब
घर पहुँचे तो हमारा उतरा चेहरा देखते ही पापाजी भाँप गये कि कुछ हुआ है… उन्होंने हमारे भैया को जैसे ही आँख दिखाकर सच बोलने को कहा… हमारे भैया सुपर फास्ट ट्रेन की तरह एक ही साँस में सब कह गये… बस फिर क्या था हमारे भैया की जो धुनाई हुई,उन्हें आज तक याद है और हम हमारा तो पूछो ही मत आज भी अगर दूर कहीं ट्रेन की आवाज सुन लें तो दिल इतनी जोर से धड़कता है कि लगता है बस ये धड़कन कुछ और थोड़ी देर बस …उसके बाद एक लम्बी सी खामोशी…

डॉ० भावना कुँअर

10 मार्च 2009

दिल के दरमियाँ की ओर से सभी मित्रों को होली की ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ...

आओ मनाए होली...
रंग चुरा लें...
तितलियों से...
और मधुर सुर.
चिड़ियों से...
फूलों पर छिटकती
किरणों से...
लेकर चमक,
दूब पर फैली
ओस कण को...
भर मुट्ठी में,
वादियों में बिखरे
रंगों को...
प्रीत संग घोल
आज रंग दें...
हर कोना...
भावना,प्रगीत, कनु, किट्टू

26 फ़रवरी 2009

दो गहरे साये ...

झील के उस पार
दो गहरे साये
कभी घटते से
कभी बढ़ते से
मैं अक्सर देखा करता
लहरों में उठते
तूफानों से बेखबर
अपनी हसीन
दुनिया में व्यस्त
इक दूजे को
पूर्ण समर्पित।
मैं रोज सुबह उठता
अखबार पढ़ता
और इसी झील के किनारे आता।
उन सायों से
मेरा एक रिश्ता
बहुत घनिष्ट रिश्ता
बन गया।
बन गये वो भी
मेरी जिंदगी के अहं हिस्से।
रोजमर्रा की तरह
आज भी उठा
अखबार पर नजर दौडाई
पर हटा न सका
दहल गया खबर पढ़कर
झील में जोरों का तूफान जो आया था
बेतहाशा दौडा
झील के किनारे
पर वो किनारा
अब तहस-नहस हो चुका था
बर्बादी का आलम था
और
और वो दोनों साये
एक दूजे का हाथ थामें
खामोश पडे थे
जैसे कि रात और दिन
सदियों बाद मिलें हों
ऐसी खामोशी
जो अब कभी नहीं टूटेगी।
मैं बुत बना देखता रहा
सोचता जाता
कौन थे?
कहाँ से आते थे?
नहीं जान पाया इस रहस्य को
हाँ जाना बस इतना
निभाया साथ दोनों ने
आखिरी साँस तक
जो अब नहीं
निभाता कोई।

डॉ० भावना

25 जनवरी 2009

रूह की बेचैनी


फूलों जैसा मेरा देश मुरझाने लगा
शत्रुओं के पंजों में जकडा जाने लगा
रात-दिन मेरी आँखों में एक ही ख्वाब
कैसे हो मेरा 'प्यारा देश' आजाद
कैसे छुडाऊँ इन जंजीरों की पकड से इसको
कैसे लौटाऊँ वापस वही मुस्कान इसको
कैसे रोकूँ आँसुओं के सैलाब को इसके
कैसे खोलूँ आजादी के द्वार को इसके
कैसे करूँ कम आत्मा की तडप रूह की बेचैनी को
चढ़ जाऊँ फाँसी मगर दिलाऊँगा आजादी इसको
ये जन्म कम है तो, अगले जन्म में आऊँगा
पर देश को मुक्ति जरूर दिलाऊँगा।

जो सोचा था कर दिखलाया
भले ही उसको फाँसीं चढ़वाया
शहीद भगत सिंह नाम कमाया
आज भी सब के दिल में समाया।



वतन से दूर हूँ लेकिन
अभी धड़कन वहीं बसती
वो जो तस्वीर है मन में
निगाहों से नहीं हटती।


बसी है अब भी साँसों में
वो सौंधी गंध धरती की
मैं जन्मूँ सिर्फ भारत में
दुआ रब से यही करती।


बड़े ही वीर थे वो जन
जिन्होंने झूल फाँसी पर
दिला दी हमको आजादी।
नमन शत-शत उन्हें करती।


Dr.Bhawna

21 जनवरी 2009

दांस्ता...

धड़कता रहा
लफ़्जों का सीना
रात भर,
सिसकती रही
कलम भी,
कागज़ भी न दे पाया
अपना हाथ,
चाँद ने भी
करवट ले ली,
ओढ़ ली काली चादर
रोशनी ने,
तारों ने भी
फेर ली अपनी आँखें,
पिघलता रहा आसमां
मोम की मानिंद,
थरथराते रहे
रात्रि के होठ,
तो फिर!
कैसे लिखता वो
दर्दे दिल की दांस्ता?
डॉ० भावना